दिल्ली के घंटाघर इलाके का ‘अंबा सिनेमा’ दिल्ली से विलुप्त होते सिंगल स्क्रीन थियेटर की आखिरी निशानी की तरह ज़िंदा है। और इसे ज़िंदा रखने के लिए मजबूरी में किसी गंदी भोजपुरी फिल्म या कांति शाह का सहारा नहीं लेना पड़ता। यहां आमिर खान की दंगल लगती है और वो भी हाउसफुल। ‘दंगल’ के प्रोमो वाले पोस्टर पर जिस तरह ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के?’ लिखा पढ़ता था तो लगता था एक ऐसी कहानी जिसे एक लाइन में समझा जा सकता है, उसके लिए पैसे क्यूं खर्च करने। फिर भी आमिर खान के ‘बहकावे’ में आ गया और फिल्म देखने के लिए ‘अंबा’ जैसी मज़ेदार जगह ढूंढी।
कैशलेस के ज़माने में फ्रंट, रियर और बाल्कनी के लिए टिकट खिड़कियों में लाइन लगकर नोट लहराते लोगों के बीच में मैंने जब जानबूझकर पूछा कि दंगल देखने के लिए इतनी भीड़ क्यूं है तो एक ही जवाब आया ‘आमिर खान’। हॉल इतना हाउसफुल था कि भीड़ को संभालने के लिए पुलिस लगानी पड़ी। अंधेरे में सीट ढूंढते हुए जैसे-तैसे टॉर्च वाले भाई तक फ्रंट वाली टिकट लेकर पहुंचा तो राष्ट्रगान शुरू हो गया और जो जहां था, वहीं रुक गया। फिर मेरे राष्ट्रगान से ‘प्रभावित’ होकर टिकट चेक करने वाले भाई ने मुझे चुपके से पीछे की तरफ भेज दिया जहां के टिकट की क़ीमत दोगुनी थी।
दंगल विशुद्ध रूप से भारतीय फिल्म है। किसी विदेशी दर्शक को आप ये फिल्म दिखाएंगे जहां लिंग जांच की अनुमति है, तो वो समझ ही नहीं पाएगा कि एक बाप लगातार लड़की पैदा होने से इतना दुखी क्यूं हो जाता है। मगर ये लड़कियां कॉमनवेल्थ 2010 की हीरो रही कुश्ती चैंपियन गीता कुमारी फोगाट और उनकी बहन बबीता फोगाट हैं और उनके जन्म पर मायूस होने वाले उनके पिता महावीर फोगाट जिनके लिए बेटे का मतलब देश के लिए एक गोल्ड मेडल जीतने वाला पहलवान है। फिल्म का पहला हाफ इतना बेहतरीन है कि आप अपनी सीट पर बैठ ही नहीं पाते। ‘अंबा सिनेमा’ का हर दर्शक गीता फोगाट के साथ रोहतक का पहला दंगल लड़ रहा होता है जहां वो पहली बार लड़कों से पहलवानी करती है। हर दांव पर उछल-उछल कर सीटियां बजा रहा होता है जहां वो लड़कों से जीत रही होती है और बचे हुए मर्द पहलवान गीता की कुश्ती देखकर दुआएं कर रहे होते हैं कि अच्छा हुआ बच गए वरना थैली में भरकर घर जाते। उम्मीद है दिल्ली और हरियाणा और तमाम देश ऐसी फिल्मों की कुछ सीटियां बचाकर अपने परिवारों में भी लाएगा जहां बेटियों को बेटियां समझकर ही सम्मान दिया जाए।फिल्म का दूसरा हाफ थोड़ा बोरिंग है। बहुत नाटकीय भी। पूरी-पूरी कुश्ती का सीधा प्रसारण है। गीता जब कॉमनवेल्थ का फाइनल खेल रही होती है, तो उसके पिता को एक कमरे में बंद कर दिया जाता है। फिर जहां से उसकी आवाज़ बिल्कुल बाहर नहीं जाती, राष्ट्रगान की आवाज़ अंदर आती है और वो ‘समझ’ जाते हैं कि ‘अंबा सिनेमा’ का दर्शक गोल्ड मेडल जीतने वाली गीता के सम्मान में खड़ा हो गया होगा। बहरहाल, भारतीय कुश्ती संघ को इस फिल्म को ध्यान से देखना चाहिए और सोचना चाहिए कि उसके कोच क्या सचमुच इतने बेकार रहे हैं। अगर हमारे सभी स्कूल, कॉलेज, ट्रेनिंग संस्थानों के कोच या टीचर सिर्फ नाम भर के हैं तो देश के रहनुमाओं को गंभीरता से समझना चाहिए कि करोड़ों की आबादी गुमराह हो रही है।
फिल्म में अमिताभ भट्टाचार्य के गीत बहुत प्यारे हैं। फिल्म का सेंस ऑफ ह्यूमर और भी अच्छा है। नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी की पहलवान लड़कियां शाहरुख की फिल्म देखने के लिए जुटने लगती हैं और गीता नहीं जाती तो उसकी दोस्त कहती है – ‘शाहरूख को ना नहीं कहते, पाप लगता है’। फिर सब मिलकर ‘DDLJ’ देखती हैं कि कैसे शाहरूख एक लड़की के पलटने पर प्यार होने का सही गेस मारता है। इस तरह आमिर खान अपनी फिल्मों में साफ कर देते हैं कि क्यूं उनके कुत्ते का नाम ‘शाहरूख’ है।
‘दंगल’ की रिलीज़ से ठीक पहले आमिर ख़ान को मजबूरी में नोटबंदी की तारीफ तक करनी पड़ी। अगर इतना करने भर से उन्होंने एक अच्छी फिल्म की रिलीज़ के सारे ख़तरे टाल दिए, तो उन्हें एक ही गोल्डन शब्द कहना चाहिए ‘साब्बाश’।The post दंगल विशुद्ध भारतीय फिल्म है appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.