दिल और मन सिर्फ बेरोक उड़ना चाहते हैं। मेरे, तुम्हारे और हम सबके। पूछो ज़रा उस ऑफिस की मेज़ पर हरदम कंप्यूटर से चिपके प्राणी से या कि किसी बेहद व्यस्त सीईओ से। कहीं कोने में चहक उठेंगी वही सतरंगी यादें और कसक जहां बंदिशों से परे अरमानों का आसमान हो। अरे! सुन्दर पिचई को भी याद हो आये न बचपन के क्रिकेट के दिन। अल्हड़ और मनमौजी। सामाजिक विषमताओं, आर्थिक असमानताओं और ऊंचे मॉलों से सटे नाले के पास की स्लम्स में भी वही सपने पलते हैं। पास्चराइस्ड अमूल के दूध की जगह शायद आटे के पानी या सिर्फ पानी से ही उन सपनों का पेट भरा जाता है।
कहते हैं व्यक्ति सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम होता है। जन्म से मृत्यु तक उसके परिवेश की दास्तान उसके व्यक्तित्व में झलकती है। तो फिर कोई अपराधी, अपराध क्यों करता है? सवाल सबसे अव्वल यह होना चाहिए कि अपराधी इतना निर्मम कैसे हो गया कि उसके लिए मूल्य, कुछ नही रह गए। मानवीयता और सही-गलत के फ़र्क़ धुन्धला से गए। क्या ये पूछा हमने कभी खुद से कि फ्लाईओवर के नीचे और ट्रैफिक सिग्नल के पास की बेज़ार ज़िंदगियां हमने कैसे अनदेखी कर दी! क्या कभी ये सोचा कि नाले के उस पार की झुग्गी में भी इंसान रहते हैं? बस क्यूंकि वो झुग्गी वाले हैं तो ऐसे ही होंगे, झगड़ालू, गंदे और जाहिल? और अगर वो ऐसे हैं तो ऐसे क्यों और कैसे बन गए?

क्या वहां भी उस दलदल में एक ‘तितली’ कैनवास पर अपने पंखों में रंग सहेज़ रही है या न जाने कितनी ही तितलियां दम तोड़ रही हैं? क्या सपनों की इस लड़ाई में कोई किसी भी हद तक जा सकता है या कि भावनाओं से दूर बस तड़प हो। बेचैनी खूब दूर निकल जाने की और वापस कभी नही आने की। क्या झूठ, धोखा, फरेब, दुःख, तक़लीफ़ उन सब घरों में नही होता जहां आने वाले कल की सोचने की न तो कोई वजह दिखाई देती ना सतही ख्वाहिश! क्यों इस वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में वो चुप कोने में कसमसाता है कि जिसके कंधे पर सीढ़ी रख तुम यूं ऊपर पहुंच गए और वो कुचल दिया गया!!!
इसीलिए तितली और नीलू उस वर्ग को सामने लाते हैं जो इन सबके बावज़ूद इंसान हैं अपने सभी पॉजिटिव और नेगेटिव रूप में। विक्रम, बावला, सरिता और डैडी जी ये सभी मिल जाएंगे आपको बाहरी दिल्ली के उस पार या किसी भी उफनते शहर में।
फ़िल्म ‘तितली’ एक रूपक है। तितली की माँ, बेटी चाहती थी तो ये नाम रख दिया पर उन्हें क्या पता था कि ककून से निकलने को ये तितली सच में यूं बेताब होगी। नीलू आपको बताती है कि एक आदर्श समाज के नज़रिये से एक विचित्र फैमिली में आने के बाद भी वो अपनी गरिमा और अपना वजूद कैसे अलहदा बनाये रखती है। नीलू याद दिलाती है कि उस छोटी सी लड़की के इरादों का कद भी ऊंचा हो सकता है चाहे इरादा कितना भी भ्रामक हो। लेकिन विक्रम आपको सबसे ज़्यादा विचलित करता है। इसलिए नही कि वह आक्रामक किस्म का है बल्कि इसलिए कि वो जब कमज़ोर पड़ता है और तीन लाख के खोने पर बिलखता और बौखलाता है तो आप इस जैसे परिवारों की ज़िंदगियों पर सोचने लगते हैं और तब मुझे राजकुमार राव और हंसल मेहता वाली सिटी लाइट्स याद आ जाती है। वही जहां औद्योगीकरण और शहरीकरण की चकाचौंध में एक छोटा सा खुश परिवार बर्बाद हो जाता है।

तितली के साथ-साथ मैंने तमाशा भी देखी थी। वही तमाशा और वही सपने, वही रेस में पिछड़ते पर फिर भी रोज़ उसी दौड़ में दौड़ते, गिरते, पड़ते, लगे हुए लोग। शायद रेस में थोड़े आगे भी हो जाते पर ज़माने बाद पछताते कि काश, थोड़ा रुक के, ठहर के ज़ेहन के भीतर झांके होते और दुनियावी रस्मों से बगावत कर दिए होते, थोड़ी हिम्मत करते तो कुछ और ही होते आज। ज़्यादा खुश और इत्मीनान में। कहानी के पात्रों में रमने वाले मन को कॉर्पोरेट डील्स की कहानियां, इंसान के रूप में मशीन बनाते जाती हैं। वो मशीन बन चुका इंसान भूल सा जाता है कि वो कभी जीता था उन किस्सों में। आज वो बस बीत रहा है वक़्त सा।
पर तितली हो या तमाशा का वेद, बेकरार है और शायद अपने-अपने तरीकों से बाहर निकलने की कोशिश भी करता है। वेद कोर्सिका जाता है खुद को तलाशने क्योंकि शायद उसके पास फिर भी एक बार ही सही चॉइस है, पैसा है। पर तितली को अपना सब कुछ लगाके भी इस दुनिया से बाहर निकलना है। जहां वो किसी वेकेशन के लिए नही, एक इज़्ज़त से लबरेज़ ज़िंदगी की खातिर जाएगा।
फर्क इतना ही है। बाक़ी सब एक ही हैं- तारे ज़मीन पर का ईशान, थ्री इडियट्स के तीनों इडियट्स, वेद, तितली, नीलू, क्वीन की रानी और हमारे कॉलेज से सटे चॉल की लड़की। वो लड़की जिसने अपने पापा से खूब लड़के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला लिया। जो डॉक्टर बनने का सपना पाल रही है और यह बताते हुए गर्व भरी मुस्कान से छलकी जाती है।
फोटो आभार: फेसबुक पेज तितली और तमाशा
The post ‘तितली’ सी तड़प या ‘तमाशे’ की तलब! appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.