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Channel: Culture-Vulture – Youth Ki Awaaz
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हिंदी हमारे खून में है फिर भी हिंदी पत्रकारिता मर रही है

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हिंदी हमारे खून में है, और जो खून में होता है वो ज़ुबान पर पहले आता है। इस लाइन का कॉन्टेक्सट दूं उससे पहले एक लाइन जोड़ना ज़रूरी है कि इस देश के खून में हिंदी नहीं भी हो सकती है और आप उपर वाली लाइन से असहमत भी हो सकते हैं। लेकिन इतना तो है कि हिंदी आजकल चर्चा में है। डिसक्लेमर वाली लाइन जोड़नी ज़रूरी थी, नहीं तो आजकल एक लाइन पढ़कर रिएक्ट करने का ट्रेंड सा चल पड़ा है और खासकर अगर वो लाइन हमें अपने सहूलियत के गद्दे से उतारकर एक नए लॉजिक के खुरदुरे फर्श पर ले आए तो।

हिंदी अलग-अलग दौर से गुज़री। जहां से सबसे लेटेस्ट गुज़री वो है पत्रकारिता की ग्लैमर वाली गली। हिंदी पत्रकारिता कि आधिकारिक शुरुआत 30 मई को मानी गई है क्योंकि उदंत मार्तंड इसी तारीख को 1826 में पहली बार छापा गया था। हालांकि वो एक साल बाद 1827 में बंद भी कर दिया गया। लेकिन वहां से पत्रकारिता को अंग्रेज़ी भाषा के आधिपत्य से निकालकर हिंदी भाषी क्षेत्रों और लोगों तक पहुंचाने का जो सिलसिला शुरु हुआ वो तो आप जानते ही हैं कि आज भी चल रहा है।

हिंदी को अगर बदनामी के शोर से बचाना हो तो भारत की पूरी पत्रकारिता को ही लचर घोषित कर हिंदी पत्रकारिता कि स्थिति पर लीपापोती की जा सकती है। लेकिन कोई परत दर परत पत्रकारिता की स्थिति देख ले तो पिछले कुछ समय में हिंदी बहुत लचर और स्तरहीन पत्रकारिता की ओर चली गई है इस बात के विपक्ष में कोई तथ्य रखना मुश्किल हो जाएगा। अगर याद करना ज़्यादा मुश्किल हो रहा हो तो बस यूपी तक और यूपी चुनाव तक चलिए, दैनिक जागरण भाजपा का प्रचार करते हुए जितनी उंचाईं पर अपनी होर्डिंग पर चमक रहा था, हिंदी पत्रकारिता उतने ही गर्त के अंधेरे में खो रही थी। हां हर साल रिवायती तौर पर हिंदी पत्रकारिता दिवस की बधाइयां तो आपस में लूट ही ली जाती है। अतीत के किस दौर में हिंदी पत्रकारिता का कौन सा काल रहा ये तो इंटरनेट पर एक सर्च में आपको मिल जाएगा। हां वर्तमान और भविष्य कैसा है इसको लेकर हो सकता है कि आपको अपनी समझ के साथ-साथ कभी इंडस्ट्री के लोगों की बात भी एक समझ बनाने में मदद करे।

इसी समझ को थोड़ा और आसान बनाने के लिए Youth Ki Awaaz ने बीते 30 मई यानी कि 30 मई 2017 को हिंदी के वर्तमान और भविष्य के मुद्दे पर एक फेसबुक लाइव किया। पैनल में कौन आएं कौन ना आएं कि थोड़ी जद्दोजहद तो थी फिर तय किया गया कि एक जाने माने पत्रकार, एक जानी मानी RJ, एक पत्रकारिता पढ़ाने वाले शिक्षक, एक छात्र और एक ग्रामीण इलाकों में रिपोर्टिंग करने वाली संस्था को बुलाया जाए। तय किये गए विविधताओं के हिसाब से NDTV से अभिज्ञान प्रकाश, रेडियो मिर्ची से RJ सायेमा, IIMC में पत्रकारिता पढ़ाने वाले आनंद प्रधान, खबर लहरिया से रिज़वाना तबस्सुम और IIMC से इसी साल पासआउट हुए रोहिन वर्मा पैनल में शामिल हुएं।

नीचे वीडियो लगाया गया है। और जिस बात से शुरुआत की गई थी वो RJ सायमा ने वीडियो में 1.25 मिनट पर कहा, सायमा ने आगे ये भी कहा कि रूह से जुड़ने के लिए जो भाषा खून में हो वो बोली जाती है। आनंद प्रधान से जब नारदीय पत्रकारिता के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि नारद कभी भी हमारे पत्रकारिता के आदर्श नहीं रहे हैं, जिसे आप 10.09 मिनट पर देख सकते हैं। 10.20 पर हिंदी रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए आनंद प्रधान ने ये भी कहा कि आज कोई भी अखबार रिपोर्टिंग पर इनवेस्ट करने को तैयार नहीं है। मीडिया की विश्वसनीयता पर उठ रहे सवाल को लेकर अभिज्ञान प्रकाश ने कहा कि आज खबर दिखाने या छापने के बाद फॉलोअप की प्रैक्टिस ही नहीं रही है। कोई कुछ भी कहकर निकल जाता है। अभिज्ञान की ये बात आप वीडियो में 32.40 पर सुन सकते हैं।

इन एक्सपर्ट्स और हमारी बात के साथ साथ आप हमें अपनी राय भी ज़रूर बताइये। इस मुद्दे पर आप अपने लेख भी हमें ज़रूर भेजिए। पत्रकारिता को लेकर या हिंदी पत्रकारिता के बेहतरी को लेकर आपके पास कोई सुझाव हो या हमारे लिए कोई सुझाव हो वो भी लिखिए। सुझाव को समझते और गलतियों को सुधारने से ही शायद अगली बार हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियों में से एक कम चुनौती पर बात हो पाएगी।

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