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भारत की सरकारों को मज़दूरी करता बचपन विचलित क्यों नहीं करता?

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Child Labour In India

अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुनिया के सर्वाधिक बाल श्रमिक हैं । जबकि भारत के पास इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा ही नहीं है। इसलिए यह सवाल ही है कि क्या वास्तव में बालश्रम की पूर्ण समाप्ति भारत देश का लक्ष्य है और सरकार इस मामले में गंभीर है ?

बच्चे किसी भी राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। इस निधि को सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना एवं इनके सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक मूल्यों के विकास का दायित्व केवल उन परिवारों का ही नहीं, जहां ये बच्चे जन्म लेते हैं वरन उस समाज तथा देश का भी है जहां ये बड़े होते हैं और जहां रहते हैं। विगत वर्षों में बढ़ते औद्योगीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सभी राष्ट्रों में बाल श्रम विकराल रूप ले चुका है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। इस स्थिति ने हमारे सामने एक गहरा प्रश्न खड़ा किया है कि औद्योगिक विकास और आय अर्जन के नाम पर बाल मज़दूरी को हमारा समाज कब तक स्वीकार करता रहेगा ?

गौरतलब है कि वर्ष 1979 में भारत सरकार ने बाल-मज़दूरी की समस्या और उससे निज़ात दिलाने हेतु उपाय सुझाने के लिए ‘गुरुपाद स्वामी समिति’ का गठन किया था। समिति ने समस्या का विस्तार से अध्ययन किया और अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की। उन्होंने देखा कि जब तक गरीबी बनी रहेगी तब तक बाल-मज़दूरी को हटाना संभव नहीं होगा। इसलिए कानूनन इस मुद्दे को प्रतिबंधित करना व्यावहारिक रूप से समाधान नहीं होगा। ऐसी स्थिति में समिति ने सुझाव दिया कि खतरनाक क्षेत्रों में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगाया जाए तथा अन्य क्षेत्रों में कार्य के स्तर में सुधार लाया जाए। समिति ने यह भी सिफारिश की कि कार्यरत बच्चों की समस्याओं को निपटाने के लिए बहुआयामी नीति बनाये जाने की जरूरत है। ‘गुरुपाद स्वामी समिति’ की सिफारिशों के आधार पर बाल-मजदूरी (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम को 1986 में लागू किया गया था।

वर्तमान समय में गाँव से शहरों की तरफ हो रहे पलायन के कारण नए तरह के बाल मज़दूरों की जमात तैयार हो रही है | इसमें हमारी बदलती जीवन शैली का दुष्प्रभाव भी शामिल है। यह देखने में तो रोजगार के विकल्प के रूप में गरीबों से जुड़ गया है। लेकिन सच्चे मायनों में बच्चों के बदतर हालात के लिए जिम्मेदार कारक है। उदाहरण के लिए बड़ी संख्या में शहरों में बच्चे पन्नी बीनने के लिए गंदगी के ढेर में उतरकर जाने अनजाने कई तरह के रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं। वे इस गंदगी की बदबू में काम कर सकें और अपने भूख को भुला सके इसके लिए ही सॉल्यूशन, व्हाईटनर का नशा अपना लेते हैं।

शहरी गरीब परिवारों में आर्थिक तंगी और अनिश्चित रोज़गार का खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। यही वजह है कि कई बालिकाएं स्कूल छोड़कर बंगलों पर झाड़ू पोंछा करने जाने लगी हैं। यहां अख़बार बेचने से लेकर तमाम दुकानों पर काम करते बच्चे और भगवान के नाम पर भीख मांगते बच्चे भरे हैं। इसी क्रम में मोटर गैरेज में काम करके हुनर सीखते बच्चे भी हैं जिनका आर्थिक शोषण और काम करना जायज़ मान लिया गया है। बालश्रम कानून का हालिया संशोधन जब पारिवारिक धंधों में पढ़ाई के साथ बच्चों के काम करने को मान्यता देता है तब एक तरह से बाल मज़दूर बने रहने को ही मान्यता मिल जाती है। बाल श्रमिकों की एक बड़ी संख्या रेलवे स्टेशनों पर ट्रेनों में गुटखा बेचते झाड़ू लगाकर मांगते दिखाई देती है।

जब आप बाल मजदूरों के मसले पर बात करते हैं तो कुछ लोग यह कहते मिल जायेंगे कि इनकी आदत ही ऐसी ही गई है इनका कुछ नहीं हो सकता। या ये कि कम से कम बच्चे कुछ काम तो सीख रहे हैं बड़े होकर बेरोज़गार तो नहीं रहेंगे! कुछ लोग इसे कमायेंगे नहीं तो खायेंगे क्या से लेकर बच्चों को कमाई के सहायक के रूप में भी देखते हैं। कई यह आरोप भी लगाते हैं कि सरकार ने इनके लिए इतना कुछ किया है जैसे फ्री में खाने पढ़ने की व्यवस्था की है फिर भी ये सुधरना नहीं चाहते। दुकानदार यह दलील देते मिल जायेंगे कि मैंने तो इसे पढ़ने के लिए कितनी दफा बोला ये पढ़ना ही नहीं चाहता इसलिए फालतू यहां वहां भटकने से अच्छा है कि कुछ काम ही सीख ले।

यह तो सामान्यजन की सोच है लेकिन सरकार से जुड़े लोग भी इसे इसी नज़रिये से देखते हैं ऐसा लगता है कि वे मान चुके हैं कि बालश्रम बना रहने वाला है या कुछ बच्चे तो काम करेंगे ही। इसलिए वे केवल कुछ कामों में ही बच्चों के दुरुपयोग को लेकर रोक की बात करते हैं। इसमें भी ज़िम्मेदारी परिवार और समाज की बताकर वे अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने से बचने लगे हैं। इसीलिए जब आप देखते हैं कि देश और प्रदेश में बाल श्रमिकों की कितनी संख्या है और कितने नियोजकों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की गई तब आंकड़े बेहद कम दिखाई देते हैं जो कि वास्तविक हालत से कोसों दूर प्रतीत होते हैं। इससे बाल श्रम को पूरे रूप में खत्म करने की हमारी मंशा पर  ही सवाल खड़ा होता है।

इसलिए सतत विकास लक्ष्य में निहित लक्ष्य सन 2025 तक बाल श्रम के सभी रूपों को समाप्त करना भारत जैसे देश के लिए एक कठिन चुनौती है। अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते में स्पष्ट रूप से 18 साल से कम आयु वर्ग को बच्चा माना गया है | जबकि बाल श्रम कानून में 14 साल से ऊपर के बच्चे को काम करना जायज ठहराकर उनके विकास एवं सतत शिक्षा लक्ष्य को हासिल करने की राह में रूकावट ही पैदा की जा रही है।

बाल मजदूरों की समस्या को नए सिरे से आंकलन करने और वास्तविक आंकड़ों के साथ 18 साल से कम उम्र के सभी बच्चों को योजनाबद्ध तरीके से सभी तरह के बाल श्रम से बाहर लाने की ज़रूरत है। इस दिशा में ‘गुरुपाद स्वामी समिति’ जैसी नई समिति के गठन की आवश्यकता है जो बालश्रम से जुड़ चुके बच्चों के बेहतर पुनर्वास को लेकर न सिर्फ योजना बनाये बल्कि नए बच्चों को इसमें आने से रोकने के सम्पूर्ण उपाय बताये। यह तभी कारगर होगा जब सरकार बालश्रम को ख़त्म करने की पूर्ण इच्छाशक्ति के साथ काम करे।

पिछले सालों में बालश्रम को ख़त्म करने के लिए जो परियोजनाएं चलाई गई वे सिर्फ कुछ जिलों के औद्योगिक क्षेत्रों में ही प्रभावी रही जबकि बालश्रम की समस्या सभी जगह खासकर असंगठित क्षेत्र में सर्वाधिक रूप में व्याप्त है। इसलिए अब समय आ गया है कि बालश्रम को एक मिशन चलाकर समाप्त किया जाये। इस मामले में बंटे सरकारी अमले ,उनकी योजनाओं को भी एक साथ लाने की जरूरत होगी। अंततः बाल श्रमिकों से जुड़े परिवारों को आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की छतरी में लाये बिना यह लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा।

The post भारत की सरकारों को मज़दूरी करता बचपन विचलित क्यों नहीं करता? appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.


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