क्या पत्रकारिता में भी ग्रेड नहीं होना चाहिए जैसे फिल्मो और शहरों में होता है ? अर्थात A, B, C और D ग्रेड पत्रकारिता ? और अगर नहीं तो क्यूं नहीं ? जी हां लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जिसे कभी एक ‘मिशन’ भी कहा जाता था, आज देश में नेता और पुलिस के बाद सबसे ज्यादा बुरा भला इसी क्षेत्र से जुड़े लोगों को कहा जाता है। आप देश की पत्रकारिता की बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अभी हाल ही में साझा किये गए मीडिया की आज़ादी के विश्व रैंकिंग में भारत का स्थान 136वां था।
कभी गलत रिपोर्टिंग, कभी एकपक्षीय होकर, कभी किसी नेता-अभिनेता को बिना मतलब के लगातार सुर्खियों में बनाये रखकर, कभी छोटी घटना को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करके या सरकार के इशारों पे काम करके, भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता लगातार खो रही है। मीडिया देश के वास्तविक मुद्दों से भी लगातार भटकती रही है, हालाँकि कुछ जगहों पर मीडिया का काम काफी सराहनीय भी रहा है।
जैसा कि किसी महानुभाव ने पत्रकारिता पर कटाक्ष करते हुए कहा था “बाई द पेज 3, फॉर द पेज 3 एंड ऑफ़ द पेज 3”। यानी पत्रकारिता अब असली और वास्तविक मुद्दों से दूर सिर्फ कुछ चमक-धमक और मसालेदार खबरों तक सिमट कर रह गयी है। या यूं कहें के TRP और मुनाफे के बीच में पत्रकारिता ने अपना असली रंग-रूप खो दिया है।
आज के संर्दभ में अगर इसमें थोड़ा सा बदलाव करके ये कहा जाए कि हमारे देश की सरकारें वैचारिक स्तर पर कहीं भी जा रही हों लेकिन पत्रकारिता आज भी लोकतंत्र की परिभाषा को थामे हुए है तथा अब्राहम लिंकन द्वारा कहे गए शब्दों का खूब अच्छी तरह से पालन भी करता है तो हैरानी की बात नहीं है। अब इस तर्क पर भारतीय मीडिया की परिभाषा(कुछ अपवादों को छोड़कर) होगी- “बाई द गवर्नमेंट , फॉर द गवर्नमेंट एंड ऑफ़ द गवर्नमेंट।” मतलब सरकार के इशारों पर काम करने वाली, सरकार के कामो का प्रचार करने वाली, सरकार के हित में और सरकार का गुणगान करने वाले खबरों को छापने और दिखाने वाली मीडिया। आज की पत्रकारिता सरकार जैसा चाहे वैसा ही करती है। हर जगह मुनाफाखोरो की एक जमात है जो इस क्षेत्र में काम करने वालों को कण्ट्रोल भी करती है| पत्रकारों का काम होता है सरकार से कठिन से कठिन सवाल करना, सरकार के कामकाज को संदेह के नज़रों से देखना, ना कि सरकार के कार्यसूची(अजेंडा) को प्रोत्साहित करना। मौजूदा दौर के ज्यादतर पत्रकार और मीडिया हाउस न्यूज़ और खबरों का व्यवसाय करती है। मसाला,इमोशन और ड्रामे का खेल भी खूब चलता है।
भारतीय मीडिया आज भी असली भारत से कोसों दूर है। एक ओर जहां गाँवों में रहने वालों की तादाद लगभग 70 % है वहीं उनसे जुड़ी खबरें बहुत ही कम छपती या दिखाई जाती हैं। उनके पास सड़कें नहीं हैं लेकिन वो मीडिया के लिए मुद्दा नहीं होता है। उनकी छोटी या बड़ी किसी भी समस्या को कहने या सुनने वाला कोई नहीं होता, वहां के विद्यालयों के हालात ठीक नहीं हैं, ग्रामीण स्तर पर चिकत्सा की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं, सडकें टूटी हुई हैं, बिजली तो दूर कई गाँवों में बिजली के तार के खम्भे तक नहीं लगे हैं लेकिन ये सारे मुद्दे शायद ही कभी राष्ट्रीय मीडिया में दिखते हैं।
आखिर देश के 70% के आबादी से सौतेला व्यवहार क्यूँ ? ये बात सच है कि ग्रामीण स्तर पर समाचार पत्र कम पढ़े जाते हैं और टीवी भी कम देखे जाते हैं, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि पत्रकार या न्यूज़ हाउस उनके मुद्दों को पेपर में छापना बंद कर दें। किसानो के बद से बद्तर होते हालात, देश में बढ़ती बेरोज़गारों की संख्या, विकास के मुद्दे, प्रदूषण की समस्या, लगातार बिगडती कानून व्यवस्था, महिलाओं के साथ अत्याचार में वृद्धि, लोकतंत्र से भीड़तंत्र के तरफ बढ़ता भारतीय समाज, असहिष्णु होते लोग, धार्मिक और जातीय स्तर पर लोगों के बीच बढ़ती खाई, बॉर्डर पर लगातार शहीद किये जा रहे सैनिक और शिक्षण संस्थानों में असंतोष का माहौल और किसानो की आत्महत्या की खबरों पर चर्चा के बजाए आज हम ज्यादातर खबरों में या तो किसी का गुणगान का रहे होते हैं या तो ऐसी खबरें दिखा रहे होते हैं जिसका समाज के ज़्यादातर लोगो से कोई वास्ता नहीं होता है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक दुनिया की सबसे गरीब आबादी हमारे भारत में रहती है, दुनिया में सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं , औरतें दहेज के लिए मारी और जलायी जा रही हैं, किसान पर गोलियां चलवायी जा रही हैं, हर साल सड़क रेल दुर्घटना में हज़ारों लोग मारे जाते हैं, लेकिन बावजूद इनके ये सिर्फ एक बरसाती मेंढक की तरह आता है और चला जाता है।
देश के लिए आज किसी का खाना, पहनना , देखना, बोलना, सुनना अचानक से असली मुद्दे कैसे बन जाता है? सारी पत्रकारिता सिर्फ़ यहीं तक कैसे रह जाती है ? या यूँ कहें कि आज की पत्रकारिता ट्विटर फेसबुक से शरू होती है और वहीं ख़त्म हो जाती है। वहां किये गए ट्वीट पर राष्ट्रभक्त तथा देशभक्त डिबेट होती है। लेकिन बॉर्डर पर शहीद हो रहे सैनिकों पर हो रहे अत्याचार, किसानो पर चल रही गोली, देश की बिगड़ती अखंडता भाईचारे, महिलाओं के साथ हो रहे ज़ुल्म, दलितों और अल्पसंख्यकों पर लगातार बढ़ रहे हमले के बारे में बस एक हेडलाइन आती है। या कभी कभी खुद को संतुलित दिखाने के लिए थोड़ी बहुत चर्चाएँ होती हैं फिर उसे भी भूल जाते हैं।
अभी ट्रिपल तलाक़ का मामला आपके सामने है। देश की पूरी मीडिया उसमें ऐसे लगी हुई थी जैसे भारत के लिए उससे बड़ा खतरा और मुद्दा कुछ है ही नहीं। आज के पत्रकार जिन्हें भारत के जनसमूह या आबादी की ज़्यादातर हिस्से की परेशानियों से मतलब नहीं होता उन्हें कुछ खास वर्ग विशेष से संबंधित घटनाएं ही देश का असली मुद्दा नज़र आती है।
इन्हीं वजहों को ध्यान में रखकर टीवी को ग्रेड सिस्टम में रखा जाना चाहिए जब टीवी के डिबेट्स पर न्यूज़ एंकर किसी को राष्ट्रविरोधी या देशद्रोही का सर्टिफिकेट दे सकता है तो ग्रेड A, B ,C या D की श्रेणी में उन पत्रकारों को भी क्यों ना रखा जाए अगर न्यूज़पेपर किसी जांच या पड़ताल के बिना किसी संस्था या व्यक्ति विशेष के बारे में ग़लत बयानी कर उसपे ग़लत आरोप लगा सकता है तो उसे किस ग्रेड की पत्रकारिता में रखा जाए इसका भी हक होना चाहिए पाठकों और आलोचकों के पास। समाज का वॉचडॉग और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकारिता के पास मुद्दों की कमी हो गई है शायद या पत्रकार भी देश के असली मुद्दों से भागने लगे हैं? या उन्हें भागने के लिए मजबूर किया जा रहा है?
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