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जिस नेपोटिज़्म से कंगना लड़ रही हैं, उसके ज़िम्मेदार हम सब हैं

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अभी और पिछले कई महीनों से चर्चा में रहे कंगना रनाउत के बयान, जिनमें उन्होनें खुद को एक मज़बूत महिला के रूप में पेश किया और बताया कि कैसे भाई-भतीजावाद (नेपोटिज़्म) ने बॉलीवुड को जकड़ रखा है। अब क्यूंकि बात नेपोटिज़्म की है तो लाज़मी है जिस किसी को भी इससे फ़ायदा हुआ, वो एक साथ एक स्वर में चिल्लाएंगे ही। एक दूसरे को सहारा देंगे, एक दूसरे की मेहनत की तारीफ करेंगे, एक-दूसरे को अवार्ड शो में अवॉर्ड दिलवाएंगे। उनकी नई फिल्मों में कंगना को काम या अवॉर्ड ना मिले, इस पर चर्चाएं करेंगें। अपनी मेहनत के चिट्ठे खोलेंगे और कम-से-कम ये साबित करने की कोशिश तो ज़रूर करेंगे कि ऐसा बिल्कुल नहीं है।

Kangna Bollywood actress raising voice against nepotism

सोशल मीडिया पर आइफा अवॉर्ड्स में करण, सैफ़ और वरुण का चिल्लाना छाया हुआ है। सबके सामने कंगना असली लाइफ की हीरोइन बन गयी हैं और बने भी क्यूं ना! काम ही ऐसा ज़ोरदार किया है लड़की ने। जो आप, मैं और हम सब जानते हुए भी नहीं कर पाए, वो उसने कर दिखाया।

लेकिन नेपोटिज़्म की बुराई करते हुऐ कभी सोचा है कि इसको बढ़ावा किसने दिया? हम ही लोगों ने ना?

भई देखिए, हमें ही पड़ी रहती है कि अच्छा ये शाहरुख की बेटी है! अच्छा ये शाहरुख़ की बेटी का ब्यॉयफ्रेंड है! अच्छा ये अक्षय का बेटा इतना बड़ा हो गया! अच्छा अमिताभ बच्चन की नातिन को वहां देखा गया! वगैरह-वगैरह।

किसी नए अच्छे कलाकार से ज़्यादा मतलब हमें कलाकारों यानि हीरो-हीरोइन के बच्चों से, उनकी पर्सनल लाइफ से होता है। हम ही उन्हें सिर्फ कलाकार ना बने रहने देकर ईश्वर बना देते हैं। अब ज़रा सोचिए आपके सामने दो फ़िल्में रिलीज़ हों, एक किसी अच्छे डायरेक्टर ने किसी अच्छे कलाकार के साथ मिलकर सामाजिक समस्या पर कोई जानदार फ़िल्म बनाई हो और एक बड़े बैनर की बड़े हीरो-हीरोइन या उनके बच्चों के साथ करण जौहर ने फ़िल्म बनाई हो। दोनों में से आप कौन सी फ़िल्म देखेंगे?

सामान्य सी बात है, ये सरासर डबल स्टैण्डर्ड हैं। आपको कलाकार को कलाकार ही रहने देना है, आपको कॉन्सेप्ट्स चुनने हैं, फिल्में चुननी हैं, बड़े हीरो या बड़े डायरेक्टर नहीं। आपको फ़िल्म देखनी चाहिए, फ़िल्म में कलाकारी देखनी चाहिए, सरनेम नहीं। आप फॉलो करना बंद कर देंगे तो उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा भाई-भतीजावाद। लेकिन आप उन्हें फॉलो करेंगे, उन्ही की फिल्में देखेंगे बजाय किसी नए अच्छे कलाकार के और फिर कहेंगे कि भाई-भतीजावाद यानि कि नेपोटिज़्म गलत है, तो ये नहीं चलेगा।

करीना या शाहिद के बच्चे कितने बड़े हो गए हैं? उनके क्या नाम हैं? पर्सनल लाइफ में वो क्या करते हैं? करण के जुड़वा बच्चे कैसे दिखते हैं? शाहरुख का छोटा बेटा अपने पापा के साथ कैसे खेलता है? इन सब से हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए। हमें अपनी जानकारी उनकी फिल्मों और काम तक ही सीमित रखनी चाहिए।

मुझे याद है, जब रणबीर औऱ सोनम कपूर की पहली फ़िल्म “सावंरिया” आई थी, तब उस फ़िल्म में कुछ नहीं था। उसके ट्रेलर में मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा था कि मुझे वो फ़िल्म देखनी चाहिए। फिर भी हम गए थे क्योंकि वो फ़िल्म ऋषि कपूर और अनिल कपूर के बच्चों को लेकर बनाई गई थी। हालांकि ये अलग बात है कि हम उसे आधे घंटे से ज़्यादा झेल नहीं पाए थे। तो यही हमारी आदतें उन्हें, बेहद अच्छे मेहनती कलाकारों से आगे खड़ी कर देती हैं।

हम सभी गुनेहगार हैं हर उस कलाकार के, जो मेहनत से उस मुक़ाम तक पहुंचा और हमने उन्हें सराहा नहीं बल्कि हम व्यस्त थे बड़े बैनर-बड़े हीरो-उनके बच्चे-उनके कपड़ों को सराहने में।

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