युद्ध पर बनी फिल्में या तो जीत के जश्न की कहानी कहती हैं या हार के बाद की त्रासदी का वृतान्त होती हैं या फिर कई बार दोनों ही स्थितियों को एक साथ दिखाती हैं। युद्ध पर बनी विश्व की कई कालजयी फिल्मों का प्लॉट कमोबेश ऐसा ही रहा है। लेकिन निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन जब युद्ध पर आधारित फिल्म बनाने का निर्णय लेते हैं तो दूसरे विश्वयुद्ध की ऐसी घटना को चुनते हैं जो युद्धस्थल से बचकर ‘भागते’ सैनिकों की कहानी है। क्योंकि नोलन मानते हैं कि युद्ध में हारकर मरने से कहीं बेहतर ज़िंदा बचकर लौट आना होता है। शहीद होने या मारकर लौटने की तरह ही ज़िंदा रह जाना भी हीरोइक है। युद्ध में मरने-मारने से अलग डनकर्क ज़िंदा रह जाने का ‘जश्न’ है।
वैसे सबसे ज़रूरी बात सबसे पहले। मेरी राय में डनकर्क युद्ध पर बनी कोई महान फिल्म (या अब तक की महानतम फिल्म, जैसा कि कुछ समीक्षक घोषित कर रहे हैं) नहीं है, हां बेहतरीन ज़रूर है। फिल्म को बेहतरीन बनाता है फ़िल्म का पार्श्व संगीत (बैकग्राउंड म्यूज़िक), नोलन का कहानी कहने का अंदाज़ और स्क्रिप्ट में शामिल कुछ ऐसे तत्व जो आज तक किसी युद्ध पर आधारित फिल्म में देखने को नहीं मिले थे।
क्रिस्टोफर नोलन मुझे खास पसंद हैं क्योंकि वह दर्शकों को ‘स्पून फीड’ नहीं करते। फिल्म का मज़ा लेने के लिए दर्शकों को कई बार खासी मेहनत करनी पड़ती है। नोलन की पिछली फिल्म इंटरस्टेलर देखने का मज़ा लेने के लिए दर्शकों को ‘फिफ्थ डाइमेंशनल स्पेस’ के बारे में पढ़कर जाना पड़ा था। वैसे ही डनकर्क का पूरा मज़ा लेने के लिए दर्शकों को पहले यह जानना पड़ेगा कि किन परिस्थितियों में 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय, फ्रांस पर जर्मनी के हमले के बाद ऐलाइड ताकतों के लगभग चार लाख सैनिक फ्रांस के डनकर्क में फंस जाते हैं। कैसे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल, जर्मनी के सामने सरेंडर करने के बदले उन सैनिकों को सुरक्षित निकाल लाने का फैसला करते हैं।
उस वक़्त जर्मनी, फ्रांस या ब्रिटेन में क्या चल चल रहा था उसको बताने में नोलन वक़्त ज़ाया नहीं करते। वह सीधे सुरक्षित निकलने की कोशिश करते सैनिकों के डर से दर्शकों को रूबरू कराते हैं। उस डर के ज़रिए दर्शकों के अंदर युद्ध के प्रति नफ़रत पैदा कराने की कोशिश करते हैं और काफी हद तक सफल होते हैं। फिर नोलन सीधे सैनिकों को बचाने की कोशिश करते एक आम आदमी से मिलवाते हैं जिसका बेटा युद्ध में मारा गया है और जो सैनिकों के ज़िंदा लौटने के महत्व को सबसे अधिक समझता है। नोलन कोई बैक स्टोरी नहीं बताते, क्योंकि वह उनका मकसद ही नहीं है।
फिल्म में नोलन ने कुछ ऐसे प्रयोग किये हैं जो बैटमैन ट्रायलॉजि में किये गए प्रयोगों की तरह निश्चित ही आगे कई बार दोहराए जाएंगे।
पहली बात तो यह कि फ़िल्म में ज़्यादातर किरदारों के नाम नहीं हैं, शायद इसलिए क्योंकि युद्ध में एक सैनिक सिर्फ़ एक सैनिक होता है। उसके नाम का ‘युद्ध के महान उद्देश्य’ के आगे क्या कोई महत्व है? दूसरी बात यह कि सारे किरदार काल्पनिक हैं, केवल डनकर्क में हुई वह घटना सत्य है। द्वितीय विश्व युद्ध सत्य है और युद्ध की भयावहता सत्य है। इससे ज़्यादा सत्य नोलन दिखाना ही नहीं चाहते। नोलन तो शत्रु तक को नहीं दिखाते। किसी भी दृश्य में जर्मन सैनिक नहीं दिखते। सिर्फ़ उनकी तरफ से चलती गोलियां आती हैं, विमान आते हैं, जहाज़ आते हैं और मौत देकर जाते हैं। दुश्मन से ज़्यादा खौफ़नाक उसकी दी हुई मौत है। नोलन यही बताना चाहते हैं और मौत से पहले का वह डर जिसको दर्शक खुद अपने अंदर महसूस करता है और युद्ध के नाम पर वितृष्णा से भर जाता है। नोलन यही चाहते हैं, इसलिए उतना ही दिखाते हैं।
निर्देशक टैरंटीनो की तरह ही नोलन भी लीनियर स्टोरीटेलिंग में यकीन नहीं रखते। जैसे अपनी ‘मोमेंटों’ नामक फ़िल्म में नोलन ने पूरी कहानी उल्टी यानी अंत से शुरुआत तक दिखाई थी, वैसे ही डनकर्क में भी वह अजीब सा प्रयोग करते हैं। फ़िल्म की कहानी तीन सामानांतर स्तर पर चलती है – थल, जल और वायु। थल यानि कि ज़मीन पर सैनिकों के साथ जो भी घटता है उसकी अवधि है एक हफ्ता। जल पर की कहानी एक दिन की है, वायु पर एक घंटे की घटना दिखाई जाती है और फ़िल्म के क्लाइमेक्स में तीनों अवधियों का अंत एक जगह पर होता है। यानी अगर दर्शक फ़िल्म देखते हुए चौकन्ना नहीं है तो वह भ्रमित हो सकता है।
अब सबसे आखिर में सबसे महत्वपूर्ण बात। फिल्म की जान है फिल्म का पार्श्व संगीत। जर्मन संगीतकार हैंस ज़िमर ने घड़ी की टिक-टिक से लेकर बमों की गर्जना तक को संगीत वाद्ययंत्रो के साथ मिलाकर उसे ही पार्श्वध्वनि का हिस्सा कुछ ऐसे बनाया है कि दर्शकों की सांसे रुक जाती हैं। फिल्म के कई हिस्सों में या तो काफी देर तक संवाद नहीं हैं या बेहद कम संवाद हैं लेकिन संगीत की मदद से कहानी और परिस्थितियों के भाव सामने आते हैं। सचमुच अद्भुत संगीत है। कहीं कहीं ऑपेरा की तरह मेलोड्रामैटिक लेकिन रौंगटे खड़े कर देने वाला। पार्श्व संगीत स्क्रिप्ट जितना ही महत्वपूर्ण है।
फ़िल्म की कमियों की बात करें तो साधारण दर्शकों के नज़रिये से देखने पर लगता है कि अधिक प्रयोगों ने इसे बेहद मुश्किल फ़िल्म बना दिया है। फिल्म क्योंकि डनकर्क की घटना को भी पूरी तरह से नहीं दिखाती और एक बड़ी घटना का एक छोटा सा एपिसोड भर है इसलिए फ़िल्म में कहानी ढूंढने की कोशिश करने वाले दर्शक मायूस होंगे। फिल्म में कई किरदार है लेकिन उनका चरित्र निर्माण होता हुआ नहीं दिखता। जल वाली कहानी के पात्रों को छोड़ दे तो किसी और पात्र से मैं भावनात्मक स्तर पर जुड़ नहीं पाया। लेकिन शायद नोलन किरदारों की कहानी में दर्शकों को फंसाना ही नहीं चाहते हैं। उस तरह से देखे तो लेखक-निर्देशक नोलन सफल हुए हैं।
दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की तरफ से भारतीय सिपाही भी लड़े थे, डनकर्क में भी भारतीय सिपाही मौजूद थे। लेकिन फिल्म में एक भी भारतीय चेहरा नहीं दिखता। भारत में इस फिल्म में रिलीज़ होने के बाद कई लोग कह रहे हैं कि नोलन ने भारतीय सैनिकों को फिल्म में शामिल ना करके अच्छा नहीं किया। इस फिल्म में माध्यम से भारतीय सिपाहियों की कहानी भी दुनिया के सामने आ पाती।
सही बात है, अगर नोलन ऐसा कर पाते तो फिल्म और विश्वसनीय बन जाती। लेकिन सोच कर देखें तो नोलन का उद्देश्य यह था ही नहीं। फिल्म में अंग्रेज़ या फ्रेंच सिपाही भी अलग से रेखांकित करके नहीं दिखाए गये हैं। अगर कुछ भारतीय चेहरे दिखा भी दिए जाते तो भारतीय सिपाहियों के संघर्ष की कहानी उससे दर्शकों के सामने नहीं आ पाती। फिलहाल हम उम्मीद कर सकते हैं कि कोई फ़िल्मकार विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों के योगदान पर कभी को अंतराष्ट्रीय स्तर की फिल्म बनाएगा और इतिहास में दफ़न वह एक चैप्टर दुनिया के सामने आएगा।
फिल्म के अंत में जब डनकर्क से सुरक्षित निकाले गए सैनिक शर्मिंदगी से सर झुकाए रिहायशी इलाके में आते हैं और आम लोगों को अपना स्वागत करते पाते हैं तो बेहद भावुक हो जाते हैं। इसी भावुकता में फ़िल्म का असली संदेश छिपा है। जीवित रहना ही जीत है। हां, फासीवाद जब अपने भयावह रूप में होता है तो जीवित रहना ही जीत है।
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