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90% भाषाओं पर क्यूं मंडरा रहा है 21वीं सदी के अंत तक गायब होने का खतरा

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पूजा मलिक:

आज के दौर में गायब होती भाषाओं ओर परम्पराओं के बदलते स्वरूप का विकास, हिंदुस्तान के सामाजिक संगठन व समृद्ध संस्कृति के विकास का प्रतिबिंब माना गया है। जिसमें भाषा और समाज का संबंध प्रतिबिंब न होकर बीच का (intermediate) रह गया है। इस कारण  भाषा को उच्च वर्गीय समाज और निम्न वर्ग के संदर्भ में विश्लेषित करना ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इस लेख में कुछ चंद सवाल उठाए गए हैं: भाषा में कौन से ऐतिहासिक चिन्ह हैं? क्या भाषा भारतीय संस्कृति का गौरव ेेचिन्ह है?

शायद भाषा ना सिर्फ गौरव का चिन्ह है, बल्कि परंपराओं में लिपटे हुए निम्न वर्गीय लोगों के दमन की बर्बरता का भी प्रतीक है।

दूसरी तरफ भाषा का सबसे पहला और प्रबल रूप यह है कि भाषा तुलना का माध्यम बनकर उभरती है। मेरे विचार में तुलना के माध्यम के तौर पर भाषा क्रांति की उस पहल पर रोशनी डालती है, जिसमें क्रांति के अधूरेपन, सफलता या विफलता और मानवीय प्रयास की झलक निहित है, वरन वह क्रांति की सफलता का मापदंड भी बन सकती है। चूंकि सफल क्रांति एक नवीन भाषा की रचना करती है और अधूरी क्रांति अतीत से उधार मांगी हुई भाषा की गिरफ्त में रहती है।

हिंदुस्तान एक ऐसा सभ्य देश है जो यह मानकर चलता है कि हम सभ्य हैं और जिसके जीवन का ढांचा कभी खत्म नहीं होना चाहता। एक ऐसा देश जो अपनी विधायिका, अदालतें, प्रयोगशाला, कारखाने, रेलवे ओर लगभग सभी सरकारी और दूसरे सार्वजनिक काम उस भाषा में करता है जो यहां की मूल भाषा नहीं है। भारत उन गिने चुने देशों में शामिल है जिन्होंने इस तरह अंग्रेज़ी को अपनाया है। एक तरह से देखें तो क्या ये मान लिया जाए कि एक हज़ार वर्ष पहले ही हिंदुस्तान में मौलिक चिंतन समाप्त हो गया था और अब तक उसे पुनः जीवित नहीं किया जा सका है? मेरे विचारों में इतिहास लेखन कब, कहां, क्यों और किस तरह किया गया जिसमें पुरानी भाषाओं के स्थान पर अब नई भाषाओं का ज़िक्र किया जाने लगा है और एक तरह से यह भाषाओं का परिवर्तन काल माना जा सकता है, जवाब इसी में छुपा है।

अब सवाल ये भी है कि इस अस्थिर और बदलते हुए परिवेश में विभिन्न गायब होती भाषाओं और परम्पराओं के बदलते स्वरूप को कैसे समझा जाए? एक ऐसे माहौल में जहां हमारी खोज, इतिहास के स्वरूप और लेखन में एक नई परंपरा की ही नही बल्कि एक नए ज्ञान को उजागर करने की भी रही है।

गायब होती भाषाओं जैसी अभिव्यक्ति मैंने इसलिए गढ़ी है क्योंकि इस शब्द की परिभाषा देना आवश्यक है जिसमें भाषा, ना सिर्फ भावों की अभिव्यक्ति का बल्कि मनुष्यों द्वारा भाव–विचारों को प्रकट करने का भी सरलतम साधन है। भाषा का सहारा लेकर ही मनुष्य आवाज़ से या लिखित रूप में अपने विचारो को व्यक्त कर सकता है। मौन और मुखरित स्वरूप के अतिरिक्त भाषा के ओर भी रूप हैं, जैसे- बोली, उप-भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा, विदेशी भाषा आदि। इस तरह यह भौतिकवादी होने के साथ-साथ समाज द्वारा सृजित ज्ञान से ही जुड़ी हुई है।

भाषाएं शुरू से ही बढ़ती, सिकुड़ती और मिटती रही हैं। लेकिन आज की दुनिया में भाषाओं का गायब होना भूमंडलीकरण, उपनिवेशिकरण, नवपूंजीवाद, सम्प्रेषण और संचार साधनों की बहुतायत आदि के कारण भी हुआ है। युनेस्को के एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि भाषाओं के गायब होने की रफ्तार इधर तेज़ी से बढ़ रही है और परम्पराओं के सांस्कृतिक स्वरूप में बदलाव नई भाषाओं के आगमन के उदय का कारण भी रहा है। अनुमान है कि दुनिया भर में इस वक्त जो लगभग 6 या 7 हज़ार भाषाएं बची हैं, उनमें से 90% भाषाएं इक्कीसवीं सदी के अंत तक मिट जाएंगी।

जहां तक भारतीय भाषाओं की बात है, इनमें अगर हिन्दी की ही बात करें तो यह ढेरों चुनौतियों से निपटी और आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंची है। यह अभी भी सुरक्षित भाषाओं वाली श्रेणी में आती है, लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या इस सदी के अंत तक भी इसकी यही हैसियत बनी रह सकेगी? क्या हिंदी भी अपने जीवन के आखिरी चरण में है और क्या इक्कीसवीं सदी की समाप्ति पर इसे भी यूनेस्को द्वारा विलुप्त भाषा की श्रेणी में रख दिया जाएगा?

अंग्रेज़ी हिंदुस्तान को ज़्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुंचा रही है क्यूंकि यह एक विदेशी भाषा है, बल्कि इसलिए क्यूंकि यह भारतीय सन्दर्भ में सामंती है। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि अंग्रेज़ी के साथ प्रतिष्ठा, सत्ता और पैसा जुड़ा है।

ये आम सोच है कि संपन्न परिवार अगर अपने बच्चे को अंग्रेज़ी की शिक्षा ना दे तो बेवकूफी होगी। वहीं दूसरी तरफ निम्न वर्गीय परिवार के बच्चों को इस भाषाई दमन की बर्बरता का शिकार होना पड़ता है।

इस तरह अंग्रेज़ी के कारण भी भारतीय जनता खुद को हीन समझती है। अब क्योंकि वह अंग्रेज़ी नहीं समझती है, इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और वह मैदान छोड़ देती है। इस प्रकार गायब होती भाषाओं का प्रभाव ना केवल स्वतंत्रता संग्राम, परम्पराओं और कृषि संबंधों पर ही पड़ता है बल्कि विलुप्त परम्परा की आहट शहर की गरीब जनता और श्रमिकों के व्यापक व ज़ोरदार संघर्ष में भी मिलती है।

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