झारखंड का अस्तित्व और झारखंड का अतीत शायद नई पीढ़ियों को पता ना हो! मैं भी नई पीढ़ी का हूं, लेकिन बड़ी तमन्ना रखता हूं अपने अस्तित्व की उस जड़ को जानने की जो मेरा झारखंड कहलाता है। जिसे आज राजनीति का अखाड़ा और बनियों (कॉर्पोरेट) की जागीर बनाकर रख दिया गया है।
झारखंड, जिसे उसके अनोखे और अद्भुत लोग, समाज और उनकी अद्भुत संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। झारखंड का शाब्दिक अर्थ साधारण विचार से जंगल झाड़ वाला क्षेत्र समझा जाता है, लेकिन स्थानीय संताली भाषा का शब्द “जाहेरखोंड” बखूबी बयां कर सकता है, इसका अर्थ है दैवीय भूमि (The Divine Land )। यह शब्द इस क्षेत्र की विशालता और अद्भुत विशेषता को पूरी तरह से प्रदर्शित करता है और यह मुझे उचित भी लगता है।
15 नवंबर 2000 को जो राजनीतिक सीमा रेखा खींची गई थी, वह सीमा रेखा शायद जाहेरखोंड शब्द के आगे सिमट कर रह गई। आइये इसकी विशालता और ऐतिहासिक विशेषता को इतिहास के पन्नों में देखे कि आखिर जाहेरखोंड या वर्तमान झारखंड इतना महत्वपूर्ण क्यों था और आज भी इतना महत्पूर्ण क्यों है?
मुगलों के ज़माने में झारखंड क्षेत्र को कुकरा नाम से जाना जाता था। बाद में अंग्रेज़ों ने इसे झारखंड कहा। सन 399 में चीनी यात्री फाह्यान भारत भ्रमण के लिए आया तो उस वक्त भारत में गुप्त राजाओं का शासन चलता था। जब फाह्यान ने छोटा नागपुर के क्षेत्रों को देखा तो उसने इन क्षेत्रों को ‘कुक्कुटलाड’ कहकर संबोधित किया था। मुगलकाल के दस्तावेजों में झारखंड की ऐतिहासिक पहचान के प्रमाण मिलते हैं। “द इम्पीरियल गैजेटियर ऑफ़ इंडिया” में झारखंड की भौगोलिक पहचान कुछ इस तरह की गयी है- “अकबरनामा में छोटा नागपुर , इसके सहायक राज्य और इससे लगे ओडिशा के क्षेत्रों को झारखंड कहा गया है। (Chota Nagpur Including the Tributary States of ‘ChotaNagpur’ and ‘Odisha’ is called ‘Jharkhand’ in the AKBARNAMA)”
झारखंड ऐतिहासिक क्षेत्र के रूप में मध्ययुग में उभरकर सामने आया था। झारखंड का पहला उल्लेख 12वीं शताब्दी के नरसिंह देव (गंगराज के राजा) के शिलालेख में मिलता है। यह दक्षिण उड़ीसा में पाया गया है और उसमें दक्षिण झारखंड का उल्लेख है। यानी उस वक्त उत्तर झारखंड की भी पहचान थी, जो उड़ीसा के पश्चिमी पहाड़ी जंगल क्षेत्रों से लेकर आज के छोटा नागपुर, संताल परगना, मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के पूर्वी भागों तक फैला हुआ था। उड़ीसा के पश्चिम क्षेत्रों के राजाओं को ‘झारखंडी राजा’ कहा जाता था। 15वीं सदी के अंत में एक बहमनी सुल्तान ने ‘झारखंड सुल्तान’ या ‘झारखंडी शाह’ की पदवी ग्रहण की थी। उसका अर्थ यह है कि उस वक्त मधय प्रदेश के जंगल क्षेत्रों को भी झारखंड के नाम से ही जाना जाता था।
बहुत सी मानव सभ्यताओं की उत्पत्ति नदी घाटियों में मानी गई है, लेकिन झारखंडी सभ्यता की उत्पत्ति जंगल से हुई इसलिए हमारे लोकजीवन में जंगलों को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। इस कारण आज भी हमारे लिए जल, जंगल और ज़मीन झारखंडी अस्तित्व से जुड़ी हुई है। इनके बिना झारखंड अधूरा है। झारखंड क्षेत्र में जनजीवन को जंगल ही सदियों से सभ्यता और संस्कृति की राह दिखाता आ रहा है।
पूरे झारखंड में बिखरे ऐतिहासिक अवशेषों, सांस्कृतिक साक्ष्यों और स्थापत्य कला की दृष्टि से उल्लेखनीय कृतियों से यहां के अतीत और लोकजीवन के विविध पक्षों को जाना जा सकता है। अगाध पुरातात्विक संभावनाओं वाले झारखंड राज्य के इतिहास, सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक परम्पराओं को समझने के लिए, व्यापक व गहन सर्वेक्षण, अन्वेषण और उत्खनन ज़रूरी है। अब तक जो हुआ है, उससे झारखंड के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकासक्रम को जान पाना संभव नहीं है। इतिहास के काल की कई कड़ियां अभी भी गुम हैं।
इससे दीगर तथ्य यह है कि आम तौर पर इतिहास में राजाओं और राजव्यवस्था से जुड़ी घटनाओं और तारीखों का संकलन-आकलन होता है। इस दृष्टि से झारखंडी इतिहास में जो कुछ उपलब्ध है, उससे झारखंड के अतीत की मुकम्मल पहचान नहीं बनती। जो सामग्री उपलब्ध है, उससे यह संकेत मिलता है कि झारखंड का इतिहास वहां के राजाओं से ज़्यादा वहां की जनता ने बनाया। उपलब्ध तथ्यों और प्रमाणों से यह जान पाना भी मुश्किल है कि वहां के राजाओं और जनता के बीच क्या फर्क था? देश-दुनिया के इतिहास में वर्णित राजतंत्र के उत्थान-पतन की कहानियों और राजा-प्रजा के बीच के फर्क पर टिकी शासनिक अवधारणाओं से झारखंड के अतीत को पहचानना अब तक मुश्किल साबित हुआ है। उसे जानने-समझने के लिए नयी दृष्टि और पैमाने बनाने होंगे।
राजा और प्रजा के बीच के फर्क से ज़्यादा लोकजीवन ही झारखंड के इतिहास की पहचान का कारगर आधार बन सकता है।
इतने बड़े क्षेत्र में फैला झारखंड आज ऐतिहासिक अज्ञानता और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण सिमट कर रह गया है और आज का वर्तमान झारखंड गंदी राजनीति का शिकार होकर अपने अस्तित्व और विकास के संघर्ष कर रहा है। इतना आसान भी नहीं कि अतीत की उस जड़ को उखाड़ फेंक दिया जाए। कहीं ना कहीं तो उस जड़ से कोपलें फूटेंगी और अपने अस्तित्व को, अपने इतिहास को बाहर लेकर आएंगी।
रंगबिरंगी जनजातीय सभ्यताओं का मेल है झारखंड। हो, मुंडा, संताल, गोंड, पहाड़िया, सबरी, असुर, भील और उराओं जैसी प्राचीन जनजातियों की बेजोड़ संस्कृतियों का मेल है झारखंड। जंगलों, पहाड़ों, नदियों, मैदानों से निकलने वाली मधुर बांसुरी की तान और मांदर की थाप है झारखंड। गांवों और देहातों का देश है झारखंड, जहां अपनी ही विरासत को समेट कर रखा गया है। अद्भुत है झारखंड।
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