16 साल पहले अफगानिस्तान के बामियान में महात्मा बुद्ध की दो विशालकाय मूर्तियों को तालिबान ने नेस्तनाबूत कर दिया था। अब भारत में ताजमहल को लेकर जो बयान सामने आ रहे हैं उससे भले ही यह विश्व धरोहर नष्ट हो न हो पर मानसिक रूप से दो हिस्सों में ज़रूर बंट जाएगी। जो काम बामियान में बाबर और चंगेज़ खान नहीं कर पाए थे वहां वह काम तालिबान ने किया। भारत में यह ताज का ताज किसके माथे बंधेगा अभी कहा नहीं जा सकता है।
जब मनुष्य पर ज़ोर ना चले तब गुस्सा, पत्थरों, इमारतों, धर्म स्थलों, विरासतों और इतिहास पर उतार दो! वर्तमान राष्ट्रवाद की यही पहचान बनाई जा रही है। भारत भूमि ने इस मानसिकता से अतीत में काफी दर्द झेला है। इन सबके बीच एक सवाल ज़रुर उभरता है कि
यदि ताजमहल गद्दारों द्वारा बनाया गया एक कलंक है तो लोकतंत्र के मंदिर में माथा टेकने वाले ज़रूर बताएं कि वह संसद भवन राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक कैसे है?
सुना है बंटवारे के कुछ साल बाद ऐसा ही हाल पाकिस्तान में हुआ था जब हिंदुओं के मंदिर, सिखों के गुरुद्वारे और ईसाइयों के चर्च तोड़ने, उन्हें धमकाने, उनकी लड़कियों का अपहरण करके उनसे जबरन शादी करने की वारदातें होती रहीं। कट्टर मज़हबी धारा में डूबे गुंडे पूरे जोश और जुनून के साथ अपना काम करते रहे क्योंकि इस पावन अभियान में सत्ता उनके साथ थी।
बहुसंख्यकों का धर्म इस्लाम “ख़तरे में” आ गया था। मुसलमानों में गर्व की भावना भड़काना ज़रूरी था, इसलिए रातों-रात इतिहास की नई किताबें लिखी गईं, सम्राट अशोक से लेकर गांधी तक सबके नाम मिटाए गए। कुछ इस तरह ही नये भारत में गर्व की कोई कमी न रहे इसलिए हमारे इतिहास में भी अब मुगलों को गायब करने का पावन कार्य हो रहा है।
नये इतिहास में महाराणा प्रताप ने अकबर को धूल चटा दी बस दुःख इस बात का कि इतिहास के पन्नों को इस युद्ध को जीतने में लगभग साढ़े चार सौ वर्ष लग गये।
जो लोग आज अपनी हैसियत से आम नागरिक की परेशानी दूर करने के विकल्प की जगह अपनी राजनीति उठा देते हैं असल में वो पाप कर रहे होते है इसमें कोई एक नहीं बल्कि सर्व दल और कथित नेतागण शामिल है। नफरत की आग जब समाज में फैलती है तो उसमें भला कोई झुलसे बिना कैसे रह सकता है किसी का मन झुलसता है तो किसी का तन। जब देश के नेता अपने निज स्वार्थ लिए जनता के दिमाग में नफरत भरें तो उसका बुरा असर कई पीढ़ियों तक खत्म नहीं होता।
कहते हैं पाकिस्तान में मज़हबी विचाधारा में छात्र संगठनो ने यूनिवर्सिटियों में हंगामा मचाया, प्रोफेसरों और विरोधी छात्रों को पीटा, बहसों और सेमिनारों का सिलसिला बंद कराया, कॉलेजों की फिज़ा अकादमिक नहीं, धार्मिक और राष्ट्रवादी बनाई। मज़हब को लेकर गर्व की भावना में कोई कमी न रहे पत्थरों के गुम्बदों को नवीन आकार दिए गये। जिन कुछ लोगों को ये सब मंज़ूर नहीं था और मुसलमान होकर भी इसकी आलोचना कर रहे थे, वे बहुसंख्यकों के लिए धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी, टाइप के लोग थे। उन्हें गद्दार, इस्लाम-विरोधी और हिंदू-परस्त कहकर किनारे लगा दिया गया।
नतीजा आज पाकिस्तान के समक्ष चुनौतियों में उच्च सरकारी कर्ज़ का बोझ, कमज़ोर भौतिक व सामाजिक बुनियादी ढांचा, कमज़ोर बाह्य भुगतान स्थिति तथा उच्च राजनीतिक जोखिम आंतरिक आतंक शामिल खड़े दिखाई दे रहे है।
मैं कोई राष्ट्रवाद का प्रबल विरोधी नहीं हूं लेकिन जिस तरह हम प्राचीन स्मारकों, मन्दिरों, प्रतिमाओं, कब्रों और मठों को आस्था के साथ रखते हैं उसी तरह हम राष्ट्रवाद को भी जीवित रख सकते हैं। हालांकि मंदिर, मठ और कब्र किसी की हानि नहीं करते और कथित राष्ट्रवाद कई बार हिंसा करा जाता है।
रुसी लेखक लियो टालस्टॉय ने कहा था कि आमतौर पर बच्चों से दो परस्पर विरोधी परन्तु पसंद आने वाली चीज़ों के बारें में जब हम पूछते हैं कि तुम घर में खेलना चाहोगे या बाहर घूमना चाहोगे? तो बच्चों का जवाब होता है, दोनों! ठीक यही बात लागू होती है, किसी भी देश के नागरिक से “तुम कथित राष्ट्रवाद चाहते हो या शांति?” तो उनका जवाब भी होता है दोनों! पर भूल जाते हैं कि नफरतवादी राष्ट्रवाद और राष्ट्र की शांति का एक साथ रहना उतना ही असंभव है जितना एक समय में घर में रहना और बाहर घूमना।
सवाल यह भी कि यदि कथित राष्ट्रवाद सदगुण है और एक राष्ट्र का नागरिक होने के नाते जीवन में अनिवार्य है तो शांति चाहने वाली धार्मिकता तो एक बेकार समस्या है जितना जल्दी हो सके छुटकारा पा लेना चाहिए। हो सके तो ताजमहल पाकिस्तान को दे दो और हिंगलाज के मंदिर ले लो दोनों तरफ का राष्ट्रवाद ज़िंदा और बिना कलंक के जीवित रहेगा।
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