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अपने अफसाने से हर दिल में मुहब्बत भर देते थे शकील बदायूनी

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इश्क दिलों में पैदा होने वाली एक स्वभाविक फितरत और व्यावहारिक जज़्बा है। जहां में ‘मुहब्बत’ से बड़ी और खूबसूरत दूसरी कोई भी चीज़ शायद नहीं। इश्क खुदा की ओर से बंदों को सबसे हसीन तोहफा है। इश्क कायनात की धूरी सी है जो कि आदमियों में रूह को सलामत रखे हुए है। कहा जाता है कि प्यारे बंदों के बेपनाह प्यार में परवरदिगार ने इस जहां को उसके लिए कायम किया। दुनिया की कोई भी ज़ुबान ऐसी नहीं जिसका अदब इश्क के जज़्बात से परे हो। तात्पर्य यह कि कोई भी भाषा (ज़ुबान) हो सौंदर्य और इश्क की भावनाओं को हटा देने से वह किसी काम की नहीं रह जाएगी। वह फिज़ा में जम चुके नफरतों की खूनी छीटें मिटा नहीं सकती। कहा जा सकता है कि इश्क आदमी के साथ समाज के लिए भी ज़रूरी है। हर उम्र के लोगों कि यह दिली उम्मीद होती है कि सब प्यार से पेश आएं।

मैं भी चुप हो जाऊंगा बुझती हुई शमाओं के साथ
कुछ लम्हें ठहर… अए ज़िंदगी… अए ज़िंदगी।

इश्क में गर किसी को आंसू भी मिले तो वह मोती होते हैं। इन मुहब्बत रूपी मोतियों की ओज से जिंदगी के अंधेरे दूर हो जाते हैं। इश्क के मामले में सब इंसान एक जैसे हैं, सबमें अच्छाई की भलमनसाहत छुपी होती है। सब के गमों में भी बडी समानता पाई गई है, फिर जब खुशी का दौर आता है तो उसका महत्त्व समानता की सुंदरता में सबसे अधिक प्रकट होता है।

शायर-गीतकार शकील बदायूनी की शायरी तस्व्वुर का पूरा सफ़र ऐसे ख्वाबों से भरा पड़ा है। यह हमें ज़िंदगी का हौसला देकर उदासीन दिल को मौसम-ए-बहार का पैगाम देते हैं। शकील बदायूनी की शायरी में ज़िंदगी और इश्क का बहुत सादा, सुंदर और पाक तस्व्वुर मिलता  है। इस आईने में उनकी दिल की रूमानियत एक हसीन दास्तान सुनाती महसूस होती है। इंसान की तक़दीर गर साथ दे तो वह रूमानी दास्तान किसी रोज़ उसकी भी कहानी बन जाए। इसके बरक्स गर किस्मत  एक दुखदायी अनुभव बन जाए तो एहसास का जिस्म झुलसने लगता है।

अए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
ना जाने क्युं तेरे नाम पे रोना आया
कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का ग़िला
मंजिल इश्क के हर ग़ाम पे रोना आया।

शकील साहब का ज़िंदगी के प्रति नज़रिया उनके इन लफ़्ज़ों में समाया हुआ है – शकील दिल का हूं तर्जुमा कि मुहब्बतों का हूं राज़दां मुझे फक्र है मेरी शायरी मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं।

उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्में शकील  बी.ए बाद वर्ष 1942 मे वह दिल्ली पहुंचे, जहां उन्होंने आपूर्ति विभाग में पहली नौकरी की। वह मुशायरों मे भी हिस्सा लेते रहे। शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित शकील बदायूं नौकरी छोड़ जल्द ही बम्बई आ गए।  कुदरत ने आपको बड़ा पुर-असर गला बख़्शा था। लिहाज़ा मुशायरों में उन्हें जी भर के दाद मिलने लगी। साल 1944 में उनकी पहली ग़ज़ल किताब ‘रानाइयां’ छपकर सामने आयी तो पहचान और मज़बूत हुई।

बम्बई के एक मुशायरे में आपकी मुलाकात उस समय के मशहूर निर्माता ए.आर. कारदार तथा संगीतकार नौशाद से हुई।  कारदार साहब ने आगे बढ़कर शकील की शान में कसीदे पढ़ते हुए उन्हें अपनी फिल्म कंपनी कारदार प्रोडक्शन्स की आईंदा फिल्मों के लिए गीत लिखने की पेशकश कर डाली। शकील साहब ने पहला फिल्म गीत लिखा जो कि नौशाद साहब को काफी पसंद आया, उन्हें तुरंत ही साइन कर लिया गया। आपने सबसे ज़्यादा गाने संगीतकार नौशाद के साथ किए। यह जोड़ी  खूब जमी और गाने ज़बरदस्त हिट हुए।

मुग़ल-ए-आज़म के रिलीज़ होने के अरसे बाद भी शकील साहब की शोहरत व इज़्जत का आलम उनके चाहने वालों के जुनून से पता चलता है। कहा जाता है कि किसी चाय की दुकान में रेडियो पर शकील बदायुनी का नगमा चल रहा होता, तो ठहर कर सुनने वालों की भीड़ जमा हो जाया करती थी। नौशाद साहब की धुनें, शकील बदायूनी का कलाम और लता मंगेशकर की मखमली आवाज़ दिलों में एक सुरूर भर देती थी।

घड़ी भर तेरे करीब आकर हम भी देखेंगे
तेरे कदमों में सर झुका कर हम भी देखेंगे
तेरी महफिल में किस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे।

हिंदी सिनेमा इतिहास में मुग़ल-ए-आज़म एक मील का पत्थर है। सन 1953 में शुरू हुई कमरूद्दीन आसिफ की यह फिल्म सात वर्षों में बनकर पूरी हुई। बहरहाल 5 अगस्त 1960 को रिलीज़ हुई तो नगमों के क्रेडिट्स में शकील बदायूनी का नाम आया। शकील साहब के इश्क-ए-जज़्बात से भरे नगमों ने दिलीप कुमार-मधुबाला मुहब्बत के किस्सों को रूह देकर सुनने वालों को दिल जीत लिया था।

”मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोएं” और ”प्यार किया तो डरना क्या,जब प्यार किया तो डरना क्या” की चर्चा यहां की जा सकती है।
मुग़ल-ए-आज़म ने आम दर्शकों के साथ पढ़े-लिखे व एलिट वर्ग में भी इश्क के प्रति एक अप्रतिम आकर्षण पैदा किया, प्यार की वह रौशनी जिसकी बदौलत उदासीन दिलों में उम्मीद का उजाला हो गया था।

फिल्म में ‘अनारकली’ के किरदार के लिए उपयुक्त कलाकार की खोज बहुत दिनों तक जारी रही, फिर जाकर ‘मधुबाला’ का नाम सामने आया। युवराज सलीम की भूमिका के लिए दिलीप कुमार के नाम पर पहले से ही मुहर थी। इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने के बाद दिलीप साहब-मधुबाला का इश्क परवान चढ़ा, शूटिंग के दौरान एक-दूसरे से बनी पहचान धीरे-धीरे मुहब्बत में तब्दील हुई। लेकिन सन 1956 में ‘नया दौर’ के ताल्लुक एक मुकदमे से इस रिश्ते में तल्खी आ गई। तल्ख रिश्ते का असर मुग़ल-ए-आज़म की शूटिंग के दरम्यान साफ महसूस किया गया। दरअसल उस दृश्य में यह साफ नज़र आया जिसमें सलीम को ‘अनारकली’ के रुखसार पर थप्पड़ लगाना था। दिलीप कुमार ने मधुबाला को ज़ोरदार थप्पड़ मारा, सीन तो ज़रूर पास हो गया लेकिन दिलीप-मधुबाला मुहब्बत के किस्से शायद वहीं थम गए।

ऐसा महसूस हुआ कि शायद नाराज़ होकर मधुबाला शूटिंग छोड़ देंगी लेकिन मधुबाला के प्रतिक्रिया के पहले कमरूद्दीन आसिफ(निर्देशक) आ गए। आसिफ ने मधुबाला को सीन के लिए मुबारकबाद देते हुए कहा कि वह यह जानकर खुश हैं कि दिलीप आज भी उससे पहली जैसी चाहत रखते हैं। यह इसलिए भी कि इश्क के बिना दिलीप कुमार जैसी हरकत की उम्मीद नहीं होती।

इस सीन की याद में शकील बदायूनी की गज़ल काबिले गौर है :

मुमकिन नहीं कि दूर रहें राह-ए-इश्क से हम
फीका सा हो चला है कुछ अफसाना हयात
आओ कि इसमें रंग भरे इब्तदा से हम …

बहरहाल दिलीप कुमार-मधुबाला ने पहली बार ‘तराना’(1951) में साथ काम किया। इससे पहले की फिल्म में कुछेक सीन में दोनो साथ आए थे लेकिन वह पूरी नहीं हो सकी। तराना में दिलीप कुमार-मधुबाला के पात्रों को बहुत सराहना मिली। इसमें कोई शक नहीं कि शकील बदायूनी रूमानियत के शायर थे। इन्होंने गज़ल में जिगर मुरादाबदी और अखतर सिराजी की विरासत को आगे बढ़ाया। शकील बदायूनी-नौशाद साहब की टीम ने एक से बढ़कर एक गीतों की रचना की, यह सभी गीत हिन्दी सिने संगीत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

झूले में यूं कि आई बहार नैनो में नया रंग लाई बहार (बैजू बावरा)  अफसाना लिख रही हूं दिल-ए-बेकरार का आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार रात जिंदगी से मुलाकात होगी (पालकी), मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम ( मेरे महबूब), इंसाफ का मंदिर है यह भगवान का मंदिर है(अमर),  तु मेरा चांद मैं तेरी चांदनी (दिल्लगी), मुहब्बत की राहों पर चलना संभल संभल के (उड़न खटोला), ठहरो पुकारती है तुम्हारी ज़मीन तुम्हें (मदर इंडिया) जैसे गीतों का उल्लेख यहां किया जा सकता है।

आपाधापी के युग में गुज़रा हुआ पुराना दौर भूला सा दिया गया है, वह वक्त दूर नहीं जब शकील बदायूनी जैसे फनकार वक्त की धारा में स्मृतियों से फना हो जाएंगे।

हम तेरे शहर में खुशबू की तरह हैं फराज़
महसूस तो होते हैं पर दिखाई नहीं देते।

आज गुज़रे दौर के फनकारों को विरासत एवं यादों को ज़िंदा रखने की ज़रूरत है। उन फनकारों के कलाम को दिलों में जगह देने से वह सदा के लिए अमर हो जाएंगे।

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