आंदोलन व संगीत को कलात्मक सूत्र में पिरोने वाले, सलिल चौधरी याद आते हैं। सलिल दा का बचपन चाय बागानों की गोद में बीता, पिता यहां पर चिकित्सक थे। मोज़ार्ट-हेडन-बिथोवन की पश्चिमी क्लासिक धुनों में लड़कपन गुज़ार दिया। मुल्क के मुस्तकबिल पर सोचने वाले पिता की छाया से प्रेरणा पाते हुए चाय बागानों के मज़दूरों की दुर्दशा को करीब से जाना। चालिस के दशक के भीषण अकाल ने बंगाल को झकझोर दिया था, विश्वयुद्ध से उपजी सिसकियों के बीच राजनीति का क्रूर रंगमंच सलिल दा के अनुभवों से गुज़रा, भीतर का पीड़ित अभिवयक्त होने के लिए एक मंच तलाश रहा था। संयोग से मार्कस्वादी विचारों का इप्टा (IPTA) वहां था। सदस्यता लेकर आपने देशभर भ्रमण किया। आम जन की पीड़ा को गीतों के माध्यम से अभिवयक्त किया।
फिल्मी दुनिया में सलिल दा अपने गुरू बिमल राय के संग आए। बिमल दा की यथार्थवादी ‘दो बीघा ज़मीन’ से यहां धमक जमाई, तब से लेकर जीवन में सक्रिय रहने तक पचहत्तर से अधिक फिल्मों में संगीत दिया। हिंदी के अलावा आपने मलयालम, तमिल, बंगाली, मराठी, गुजराती एवं उड़िया फिल्मों में भी सेवाएं दी।
पश्चिमी क्लासिक संगीत को सलिल दा ने भारतीय लोकसंगीत में मिलाकर कारगर फ्यूज़न बनाया। वो चलन से हटकर चलने का हौसला लेकर आए थे, इस जोखिम में काम कम मिला, हमसाथियों की नक्ल नहीं की।
मुड़कर देखिए कि आपके संगीत से सजी अनेक फिल्में क्लासिक भी बनी। याद करें दो बीघा ज़मीन से लेकर मधुमती फिर कानून एवं आनंद व मेरे अपने सरीखा फिल्मों को। इस मार्ग में सलिल दा को कलात्मक रूप से बेहद संपन्न फिल्मकारों की फिल्में मिली। बिमल राय, बलराज चोपड़ा, बासु चटर्जी, राजकपूर, हृषीकेश मुखर्जी एवं गुलज़ार का साथ मिला।
सलिल दा की बेहतरीन धुनों पर बात करें तो दो बीघा ज़मीन से लता जी की लोरी ‘आ जा रे निंदिया’ याद आती है। मधुमती का पुकारता गीत ‘आजा रे परदेसी’ जिसे लता जी ने ही आवाज़ दी, भी खास था। इंतज़ार के इस ओर खड़ी मधु के प्यार की राह में जज़्बात को शब्दों व संगीत में महसूस किया जा सकता है। वतन की मिटटी से दूर होने की तड़प को समझना हो तो काबुलीवाला का ‘अए मेरे प्यारे वतन’ को सुनें। देशभाव के गीतों में मन्ना डे के इस गीत का बड़ा ऊंचा मुकाम है। देशभक्ति से रूमानियत की तरफ चलने पर मधुमती का लता-मुकेश का युगल ‘दिल तड़प-तड़प के’ का गीत सामने आता है। रूमानी गीतों में मधुमती का यह गीत आज भी सुना जाता है।
वहीं ‘मेरे अपने’ का ‘हाल चाल ठीक है’ युवाओं की बेरोज़गारी एवं उससे जुड़ी खीज व उन्माद व्यंग्यात्मक रूप में व्यक्त हुए थे। किशोर दा व मन्ना डे के सुरों ने युवाओं के हालात को बड़े रोचक तरीके से रखा। मोज़ार्ट के धुनों को लेकर आपकी दीवानगी को छाया फिल्म के गीत ‘इतना ना मुझसे तू प्यार’ में देखा जा सकता है। यह गीत मोज़ार्ट की चालीसवीं धुन से प्रेरित था। इस युगल को तलत महमूद व लता मंगेशकर ने आवाज़ दी थी। फिल्म ‘छाया’ का ‘जा उड़ जा रे पंछी देश हुआ बेगाना’ लता जी के गायकी का उत्कृष्ट उदाहरण था। सलिल दा के बेहतरीन धुनों में से एक।
योगेश की कविताई में ‘कई बार यूं ही देखा है, यह जो मन की सीमारेखा’ बासु चैटर्जी की ‘रजनीगंधा’ के बाकी गीतों की तरह उत्तम दर्जे का था। मुकेश ने इसे आवाज़ देकर अमर बना दिया था। गायकी के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। अतीत व वर्तमान की उलझन में जकड़ी नायिका की मन:स्थिति को व्यक्त करने में सफल हुआ था। सत्तर के दशक की बेहतरीन कॉमेडी फिल्मों में शुमार ‘छोटी सी बात’ का ‘जानेमन जानेमन तेरे यह दो नयन’ यशुदास व हेमलता का उत्साह व थिरकन भरा ज़िंदादिल गीत था। आनंद का ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ सलिल दा की बेहतरीन धुनों में से एक बना। अपने जीवन का अवलोकन करते हुए आनंद ने यह गीत गुनगुनाया था। इससे गुज़रते हुए हम हंसमुख आनंद सहगल के दूसरे पहलू से परिचित हो जाते हैं।
फिल्म के हरेक गीत का कहानी से एक व्याख्यात्मक रिश्ता था। पात्रों के हालात से निकले कहानी को दिशा देते गाने बोझिल नहीं होते। वहीं मेरे अपने का ‘कोई होता जिसको हम अपना किशोर कुमार के संवेदनशील गायकी का बेहतरीन नमूना था। सत्तर के दशक के दर्द भरे गीतों में इसको शुमार किया जा सकता है। आनंद में ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ सरीखा दर्द भरे गीत के सामानांतर खुशनुमा ‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने’ गीत भी था। गुलज़ार की यह कविताई दिलों की उदासी को तोड़ कर खुशनुमा रंगों का संचार करने में कारगर है।
लता मंगेशकर ने अनेक युगल गीतों को आवाज़ दी लेकिन ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’ एक चमकता सितारा रहेगा। प्यार को त्यागने अथवा उससे अलग होने का एक तरीका इसमें युवतियों ने महसूस किया होगा। अपनी कहानी को नायिका की कहानी बनते देखा होगा। मॉनसून के खुशनुमा माहौल से लबरेज ‘ओ सजना बरखा बहार’ में मौसम से उपजे भावों को कहा गया था। प्रकृति के समीप इस गीत को भी सलिल दा ने लता मंगेशकर को दिया था। गीत में प्रयुक्त ध्वनियां व विजुअल्स हमें मौसम के बेहद करीब ले आते हैं।
असम की चाय बगानों में बिताए दिनों ने सलिल दा को प्रकृति के करीब ले आया था। फिज़ाओं में सांस ले रही ध्वनियों का पीछा करना सीख लिया था। इसे आप मधुमती के बोलते गीत ‘सुहाना सफर’ में देख सुन सकते हैं। किसान की पुकार, सुखी पत्तियों की आवाज़ें, बहती नदिया की चाल, चिड़ियों की चहचहाहट से मुखड़ा लेती मुकेश की गायकी में आज भी वही बात नज़र आती है। प्रकृति से संवाद करते बेहतरीन गीतों में बडा ऊंचा मुकाम देंगे आप इसे।
फोटो आभार- फेसबुक
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