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मुहब्बत और फौज की ड्यूटी पर बनी बेहतरीन फिल्म है ‘उसने कहा था’

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कथाकार चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कथा ‘उसने कहा था’ पर फिल्मकार बिमल राय ने इसी नाम से एक फिल्म बनाई थी। निर्माता बिमल दा की इस फिल्म को मोनी भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था। फिल्म में सुनील दत्त, नंदा, इंद्रानी मुखर्जी, दुर्गा खोटे, राजेन्द्र नाथ, तरूण बोस, रशीद खान और असित सेन ने मुख्य भूमिकाएं निभाई।

पंजाब के एक छोटे से शहर में बालक नंदू अपनी विधवा माता पारो (दुर्गा खोटे) के साथ रहता है। हम देखते हैं कि नंदू की फरीदा (बेबी फरीदा) से बचपन की दोस्ती है। फिल्म की पात्र कमली (बेबी शोभा) अंबाला से अपने माता-पिता के साथ यहां छुट्टियां मनाने आई है। एक घटना में नंदू, बालिका कमली की जान बचाता है, उस दिन से नंदू और कमली अच्छे दोस्त बन जाते हैं। यह मित्रता कमली के अचानक अंबाला लौट जाने से समाप्त हो जाती है।

कमली और नंदू को बिछड़े वर्षों बीत चुके हैं। इस बीच आस-पास और दुनिया में अनेक परिवर्तन आए, द्वितीय विश्वयुद्ध का समय आ चुका है। बालक नंदू अब युवा (सुनील दत्त) हो चुका है।

नंदू का ज़्यादातर समय खैराती (रशीद खान) और वज़ीरा (राजेन्द्र नाथ) जैसे हमराह मित्रों के साथ गुज़रता है। घर की परवाह से दूर वह सारा दिन यूं ही दोस्तों के साथ मटरगस्ती करता रहता है। घर का खर्च मां पारो के प्रयासों से पूरा हो रहा है।

दोस्तों की संगत में रहते हुए नंदू को मुर्गों पर जुआ खेलने का शौक लग जाता है। इस खेल में बाज़ी लगाने का शौक उसे कभी-कभी कुछ पैसा दे देता है। एक दिन इसी से कमाए रूपए से वह अपनी मां के लिए हार, चश्मा और गर्म शॉल खरीद लाता है। पहले तो पारो खूब खुश होती है, लेकिन सच सामने आने पर वह बेटे को सारा सामान लौटा देती है। घटना नंदू के जीवन में आने वाले परिवर्तन संकेत के रूप में देखी जा सकती है।

हम देखते हैं कि नंदू तांगेवाले खैराती के साथ बाहर निकला हुआ है। राह में सामने से आ रहे दूसरे तांगेवाले से उसकी झड़प हो जाती है। इसी मामले में वह तांगे पर बैठी एक युवती से बहस कर बैठता है। यह युवती बड़ी हो चुकी कमली है। बचपन के दोस्त इतने वर्षों बाद ऐसे मिलेंगे, दोनों को इसकी आशा न थी। समय का चक्र कमली को एक बार फिर से बचपन की जगह वापस ले आता है।

कहानी में आगे कमली (नंदा), नंदू (सुनील दत्त) को अपने बिछड़े हुए बचपन के दोस्त रूप में पहचान लेती है। नंदू का दोस्त खैराती, कमली को उसके बारे में बताता है कि यह लफंगा (सुनील दत्त) दरअसल उसके बचपन का दोस्त है। सच को जानने के बाद कमली के मन में नंदू के लिए प्रेम हो जाता है लेकिन सुख भरे दिन फिर से काफूर होने लगते हैं। कमली के चाचा उसकी शादी सूबेदार के बेटे से करने का मन बनाते हैं।

इसी बीच पारो अपने बेटे के लिए कमली का हाथ मांगने आती है। कमली के चाचा इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर पारो को वापस लौटा देते हैं। नंदू अपनी मां की बेइज्ज़ती से बहुत आहत होता है। वह मां और स्वयं को अपमानित व तिरस्कृत पाकर खोया सम्मान वापस अर्जित करने के लिए फौज में चला जाता है।

कुछ महीने फौज में रहने के बाद नंदू वापस छुट्टियों में घर आता है, इस बीच कमली के घरवाले उसकी सगाई कर देते हैं। कमली की सगाई की खबर सुनकर नंदू तुरंत ही फौज में वापस लौट जाता है। रेजीमेंट पहुंचकर वह अपने सीनियर अफसर (तरूण बोस) के पास रिपोर्ट करता है। हम देखते हैं कि नंदू के सीनियर विवाह हेतु घर जा रहे हैं, दरअसल उनका रिश्ता कमली से तय हुआ है। सीनियर के चले जाने के बाद रणक्षेत्र का दायित्व नंदू के कंधों पर आ जाता है, एक ओर वह फौज में दुश्मनों का सामना कर रहा है तो दूसरी ओर कमली एक अजनबी के साथ बंध रही है।

मुहब्बत व ड्यूटी के दो पाटों में बंटे नंदू और कमली क्या अपने दायित्व का निर्वाह कर सकेंगे? युद्ध का बड़ा परिवर्तन दोनों की ज़िंदगी में क्या बदलाव लाएगा? क्या फिल्म का सुखद अंत हो पाएगा?

इन प्रश्नों के बीच एक ठोस संकेत मिला: जंग अपने साथ हर समय विषम परिस्थितियां लेकर आती है। नंदू और कमली की कहानी के माध्यम से फिल्म एक कड़वा सच उजागर करती है: जीवन की खुशहाली और मुहब्बत के रास्तों में युद्ध एक बड़ी बाधा है।

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