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भाभियों के स्तनों और जननांगों में रंग लगाने का मौका तलाशने वाली ये कैसी होली?

मुझे याद है जब मैं बिहार के समस्तीपुर ज़िला अंतर्गत सबडिविज़न टाउन रूसेड़ाघाट में रहता था, तब मेरा लंगोटिया यार मुकेश होली को लेकर मुझे कई ऐसी बातें बताया करता था जो शायद उस समय मेरी समझ में नहीं आती थी। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मैनें देखा कि मुकेश गलत नहीं कहता था।

उस वक्त हम छठी कक्षा में पढ़ते थे, और मुकेश अक्सर कहता था “भाई प्रिंस होली में तो मैं यहां रहता ही नहीं हूं। मैं अपने गांव बख्तियारपुर चला जाता हूं। वहां बहुत मस्ती होती है, पड़ोस की भाभियों के साथ होली खेलने का मज़ा ही कुछ और है।”

तो इस तरह से होली के पहले कुछ दिनों तक वो मुझे आरा और छपरा में खेली जाने वाली अश्लील होली का बखान करता रहता। जब मैं सातवीं कक्षा में गया तब भी हमारे विद्यालय में ऐसा ही संयोग बना कि बच्चे कम आने लगे और लड़कियां तो बिल्कुल भी नहीं। ऐसे में उसने फिर से होली की अश्लीलता की कहानी बतानी शुरू की, लेकिन इस बार वो होलिका दहन वाले रोज़ अहले सुबह बस पकड़कर पटना चला गया। जाने से पहले उसने मुझसे कहा था कि प्रिंस गांव से आकर बहुत सारी बातें बताऊंगा।

होली के बाद हमलोगों का स्कूल खुल गया, बच्चे आने लग गए। सभी एक दूसरे से अपने-अपने अनुभव साझा करने लगे। पर मुकेश नहीं आया। 10-15 दिनों के बाद जब घंटी बजाने वाले भैया ने पहली घंटी टनटनाई और कक्षा में खड़ूस वाले मास्टर साहब पधार चुके थे, तब पहुंचते हैं बाबू साहब मुकेश। मास्टर साहब ने मुकेश को ज़ोर की डांट लगाई और वह मुंह फुला कर बैठ गया।

लंच में मेरी और मुकेश की बातें शुरू हुई। मैनें पूछा, “और जनाब कैसी रही आपकी होली।” अभी भी मुकेश के गले और दोनों हाथों में गुलाल के हल्के-हल्के निशान नज़र आ रहे थे। इसका मतलब होली तो उसने अच्छी वाली खेली थी। अब मुकेश ने मुझे बताना शुरू किया कि इस बार उसने अपने गांव में किस तरह से होली मनाई। मैं उससे बार-बार पूछ रहा था कि रंग बाल्टी में घोले थे या फिर नाद (गाय को चारा या पानी पिलाने वाला बर्तन) में, और वो बार-बार मेरे सवाल को नज़रअंदाज़ कर के बस यही कहता कि भाई मज़ा आ गया

मैंने पूछा कैसा मज़ा भाई, हमको भी बता दो। मुकेश ने होली को लेकर जो बातें उस वक्त बताई थी, आज 10 में से नौ लोगों की ज़ुबान पर मैं वैसी ही बातें सुनता हूं। मेरे द्वारा सवाल किए जाने पर मुकेश ने अब मुझे बताना शुरू किया कि कैसे उसने अपने गांव बख्तियारपुर में अपनी पड़ोस की भाभियों के साथ होली खेली। हालांकि वो बार-बार यहीं आकर अटक जा रहा था कि भाई मज़ा आ गया। यहां रूसेड़ा में तो कुछ भी नहीं होता, वहां तो खुल्लमखुल्ला…
मैंने कहा कि अच्छा, किसी की भी कमीज़ पर रंग डाल दो तो कोई ऐतराज़ नहीं

उसने कहा, अरे नहीं बुद्धू हमारे यहां होली में देवर अपनी या पड़ोस की भाभी के स्तन और नीचे हाथ डालकर रंग लगा देता है।

हालांकि उसने स्तन शब्द का उच्चारण करने के बजाए रफ भाषा में बोली जाने वाली शब्द का प्रयोग किया था। मुकेश की बातों से एक पल के लिए लगा कि अच्छा तो ऐसा भी होली होता है, फिर सोचा कि फेंक रहा होगा। मैंने भी सोचा कि ठीक है सुनते हैं। वो इन चीज़ों को बताने के लिए इतना एक्साइटेड था कि मुझे कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ रही थी। वो बताता चला गया कि कैसे उसने और उसके दोस्तों ने एक प्लानिंग के तहत पड़ोस की भाभियों के साथ अश्लील वाली होली खेली। मुकेश की कहानियों में जो पात्र थे मैं किन्ही को जान नहीं रहा था, बस हां-हां कर रहा था। क्योंकि मैं काँफिडेंट था कि वो फेंक रहा है।

मुकेश कहता है –

भाई होली वाले रोज़ खूब मज़े किए। मैनें और निकुआ ने एक दिन पहले ही सेंटिग कर ली थी कि किसके घर कब एंट्री मारनी है और कब भैया नहीं होंगे तो भाभी के ब्लाउज़ के अंदर हाथ डालकर रंग लगाना है। मुकेश आगे बताता है कि यार होली वाले रोज़ तो सुबह मेरी चचेरी भाभी ने दिमाग का दही कर दिया। मैं बैठा था और उन्होंने पीछे की तरफ मेरी पैंट के अंदर गुलाल डाल दी, मुझे तेज़ गुस्सा आ गया और मैंने दौड़कर उन्हें कस के पकड़ा और उनकी साड़ी उठाकर अंदर रंग लगा दिया।

फिर मैं (मुकेश) अपने दोस्तों के साथ निकल पड़ा मुहल्ले में पड़ताल करने कि किसके-किसके घर में भौजी अकेली है या फिर किचन में कुछ पकवान बना रही है और पहला निशाना उन्हें ही बनाया। देखा कि टिलुआ की लुगाई यानी पूनम भाभी दही वड़ा बना रही है। मैं जैसे ही किचन में घुसा वो वहां से भागने की कोशिश करने लगीं, वो समझ गईं कि मुकूआ आ गया है। लेकिन मैंने उन्हें भागने नहीं दिया और उनकी नाइटी के अंदर हाथ घुसाकर उनके स्तन को रंगों से पोत दिया। हालांकि वो नई बहु थी, तो एक सप्ताह तक मुझसे उन्होंने बात नहीं की, लेकिन बाद में सब ठीक हो गया।

बिल्टुआ की भाभी अपने दलान के बाहर गाय को चारा डाल रही थी, मैंने मौके का फायदा उठाया और उनके जननांगों के बीच हाथ डालकर अच्छी तरह से पुताई कर दी, लेकिन वो भी मुझे कहां छोड़ने वाली थीं। मैनें रबड़ की इलास्टिक वाली पैंट पहनी थी और उन्होंने मुझे नग्न कर वहां पर गोबर लगा दिया।

चार-पांच घरों की भाभियों पर हमने तो सेंध मार ही दी प्रिंस। जो नई थी वो शायद इन चीज़ों की आदि नहीं थी, लेकिन अगले साल से उन्हें भी आदत लग जाएगी।

मुकेश ने जब होली वाले रोज़ अपने दोस्तों के साथ मिलकर की जाने वाली अश्लील चीज़ों का ज़िक्र करना शुरू किया तब भले ही मुझे लगा कि वो फेंक रहा है लेकिन वो जिस आत्मविश्वास और लय के साथ मुझे कहानी सुना रहा था, ये कहना भी गलत होगा कि वो झूठ बोल रहा था।

लगभग 16 वर्ष हो गए मैं मुकेश से मिला नहीं हूं। सबसे जिगरी दोस्त रहा है मेरा। मगर आज भी जब होली आती है तब मुकेश के द्वारा कही गई बातें मेरे दिमाग में ताज़ा हो जाती है।

ये एक बीमारी है जिसे बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में रह रहे अधिकांश लोगो ने रिवायत बना दिया है। ऐसी अश्लील रिवायत जिसे होली के नाम पर चुपके से किया जाता है। ये चीज़ें आज भी मैं कुछ बेहद ही खास लोगों और दोस्तों से सुनता हूं कि होली वाले रोज़ इस तरह की चीज़ें होती हैं।

मुकेश माफ करना दोस्त, अब तो तुम बड़े हो चुके हो। मुझे नहीं पता मगर भरोसा है कि तुम कहीं अच्छी जगह नौकरी भी कर रहे होगे। फेसबुक पर तुमको बहुत खोजा मैनें, पर तुम नहीं मिले। मुझे विश्वास है कि आज तुम्हारी सोच और हौसलों को कामयाबी की नई उड़ान मिली होगी। तुम्हारे विचार अब वैसे नहीं होंगें। तुमसे मिलने की बहुत चाहत है, बहुत मिस करता हूं तुमको। लेकिन अब जब हम तुमसे मिले तो प्लीज़ मुझे एक ऐसी कहानी सुनाना जिसमें तुम पड़ोस की भाभियों की आबरू के साथ खिलवाड़ नहीं बल्कि ताउम्र उनकी इज्ज़त करने की कसमें खाओ।

शुक्रिया
तुम्हारा दोस्त,
प्रिंस

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