फारुख शेख की पहचान शहर-ए-सिनेमा में अकीदत व तहज़ीब का किरदार की थी। फारुख ने बदतमीज़ होने के चलन को बेहतरीन तरह से मात दी थी। ऐसा नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में तहज़ीब का सारथी बाकी नहीं, लेकिन फारुख साहब एक अलग मिसाल थे। कहना होगा कि बहुत जल्दी चले गए।
फारुख का होना हिन्दी सिनेमा को ताकत देता था, एम एस सथ्यु व मुज़फ्फर अली सरीखे फिल्मकारों का शुक्रगुज़ार हूं। सामानांतर फिल्मों ने समाज को सच में एक उम्दा कलाकार दिया। फारुख शेख के चले जाने का दुख तहज़ीब सहन नहीं कर सकेगी। उनका जाना संभावनाओं पर विराम लगा गया। एक अरसे तक ग्लैमर वर्ल्ड में रहकर भी उसकी बुरी बातों से दूर रहने की उम्दा मिसाल को ज़िन्दा रखा था।
कुछ भी ठीक नहीं। आल इज नोट वेल! यह दिल भला उनके ना होने का मातम क्यूं ना करे, फारुख में एक उम्मीद ज़िंदा थी। फिज़ा में सबकुछ अच्छा ना होकर भी एक उम्मीद का कोना सांसे ले रहा था। काफी समय के लिए ऑफ-स्क्रीन हो जाने बाद जब वापस आए तो समझ आया कि कहानी में यही बड़ी खासियत है।
करन जोहर की ‘यह जवानी है दीवानी’ में रनबीर कपूर के पिता का किरदार रूटीन कहानी का आकर्षण बिंदु रहा।
देखकर आप महसूस करेंगे कि फारुख साहब ने चरित्र किरदारों को लेने में थोड़ी देर कर दी। यह भी कह सकते हैं कि उनकी प्रतिभा को उसके स्तर के रोल ही नहीं मिले। एक सकारात्मक संभावना वाले अभिनेता में काफी तलाश किया जाना बाकी रह गया। सितारों की जमात में फारुख की सादगी नज़र को सुकून देती थी।
सामानांतर व मुख्यधारा हिन्दी फिल्मों के बीच सकारात्मक संतुलन कायम करने में नसीर साहेब समान रुझान उनमे था। सागर सरहदी की ‘बाज़ार’ में दोनों को एक साथ देखना दुर्लभ अनुभव था। चूड़ियों से इतनी मुहब्बत करने वाला किरदार देखा ही नहीं था। हांथों की सजावट को घूम घूम कर ‘चूडियां… लाल हरी चूडियां’ आवाज़ लगाने वाला सरजु। फारुख साहब का यह किरदार एक परफेक्ट मध्यमवर्गीय मुस्लिम युवा था। फारुख के यह किरदार हाशिए के लोगों का प्रतिनिधि सा था। मुस्लिम पृष्ठभूमि पर कहानी का चलन कम रहा है, इस मिजाज़ की कहानी बॉलीवुड में नहीं बनती है। ताज्जुब नहीं होता कि इसके सामान फिर कोई फिल्म सागर साहब ने भी नहीं बनाई। फिल्म का गीत-संगीत भी इसे यादगार बनाता है। मीर से लेकर मखदुम मोहीउद्दीन फिर बसर नवाज़ के कुछ बेहद उम्दा कलाम काफी पसंद आएंगे।
फारुख शेख का जाना इसलिए भी दिल तोड़ गया क्योंकि शराफत की परिभाषा उन्हें ही देखकर सीखी। कामयाबी की खातिर कभी फिल्मों की पसंद को नहीं बदला, सिनेमा से हट गए लेकिन किरदार से कभी समझौता शायद नहीं किया। लेकिन इस क्रम में सिनेमा छूट गया, दर्शकों ने उनके निर्णय का सम्मान किया। क्योंकि वापस आए तो उसी दमखम के साथ, कहानी में रोल बदल गया लेकिन छवि की तासीर वही रही।
फिल्मों की बनावटी रवैये से दिल टूटा तो टीवी का रुख कर लिया। वहां धारावाहिक ‘श्रीकांत’ में शीर्षक भूमिका कर दिलों को जीत लिया। जी टीवी पर ‘जीना इसी का नाम है’ को कौन भूला होगा। कार्यक्रम की लोकप्रियता ने फारुख की पुरानी यादों को ज़िन्दा कर दिया था।
मुज़फ्फर अली जब एक कार्यक्रम के सिलसिले में पटना आए। प्रेस वार्त्ता में ‘उमरावजान’ की बात निकली। महफिल में आए एक शख्स ने ‘उमरावजान 2’ बनाने पर ज़ोर दिया। मुज़फ्फर साहब उस पर बात करना पसंद पसंद नहीं कर रहे थे, क्योंकि क्लासिक फिल्मों का सिक्वेल बनाने में बॉलीवुड कमज़ोर पड़ता है। लेकिन निकली हुई बात दूर तलक जाती है। शख्स ने फिल्म बनने की सूरत में खुद को फारुख साहेब की जगह कास्ट करने की बात हंसी खुशी कह डाली। महफिल में रौनक थी, आज जब उस दिन को मुड़के देखता हूं तो उस शख्स की हंसी ठहाका, तालियां चुभते हैं।
खुद मुजफ्फर साहब को भी एहसास न होगा कि उस अजनबी की दुआ उनके एक अजीज़ के लिए बददुआ हो जाएगी। फारुख अब हमारे बीच नहीं। खुदा ने किसी एक बंदे की गैर-मामूली सी गुज़ारिश में एक अजीज़ को बुला लिया। दिल नहीं लगता इस जहान में, ना जाने अब कौन वो मुहब्बत लाएगा।
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