फारुख शेख ने ग्रैजुएशन के लिए मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में एडमिशन लिया था, जो अपने अंग्रेज़ीदां माहौल के लिए जाना जाता था। वहां के थिएटर ग्रुप भी सिर्फ अंग्रेज़ी के नाटक किया करते थे। थिएटर में रूचि रखने वाले फारुख को यह बात चुभती थी। उसी कॉलेज में एक साल बाद शबाना आज़मी ने भी एडमिशन लिया। उन दोनों का जब आपस में परिचय हुआ तो उस कॉलेज में हिंदी रंगमंच की पृष्ठभूमि तैयार हुई। यह एक महत्वपूर्ण घटना थी।
एक अंग्रेज़ीदां कॉलेज में इन लोगों ने जो हिंदी रंगमंच तैयार किया, उसकी धूम इस तरह मचने लगी कि तमाम प्रतियोगिताओं में कॉलेज का अंग्रेज़ी रंगमंच उनके हिंदी रंगमंच से पिछड़ जाया करता था। जबकि एक कड़वी हकीकत यह थी कि कॉलेज सिर्फ अंग्रेज़ी नाटक करने वालों को ही फंड दिया करता था और हिंदी नाटक करने वाले छात्रों के लिए खर्च की भारी ज़िम्मेदारी खुद फारुख उठाते थे।
संभवत: कॉलेज में हिंदी रंगमंच के माध्यम से इन लोगों की जो सक्रियता रही उसी ने शबाना को पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट तक पहुंचाया और फारुख ने अपने खानदानी वकालती पेशे को अपनाने के बजाय अभिनय को अपनी निष्ठा और समर्पण का विषय बनाया। रंगमंच से जुड़े रहते हुए वे हिंदी सिनेमा से भी जुड़ गये। जहां उन्होंने कई उम्दा फिल्मों में यादगार अभिनय किया। जिनमें ‘गर्म हवा’, ‘शतरंज के खिलाडी’, ‘गमन’, ‘उमराव जान’, ‘साथ-साथ’, ‘कथा’, ‘चश्मेबद्दूर’, ‘बाज़ार’ सहित कई फिल्में शामिल हैं।
कहा जाता है कि फारुख अभिनय के लिए मशक्कत नहीं किया करते थे बल्कि वे अभिनय करने को एन्जॉय किया करते थे और अभिनय उनके लिए जीवन को सेलिब्रेट करने का ही एक ज़रिया था। इसके अलावा उनके लगभग सभी जानने वाले उनके बारे में जो एक बात समान रूप से कहते हैं, वह यह कि फारुख दिल के बहुत ही खूबसूरत इंसान थे। उन्हें कुछ फिल्मों में निर्देशित करने वाली सई परांजपे उनके नेक स्वभाव के कारण ही उन्हें ‘चाइल्ड ऑफ गॉड’ कहा करती हैं।
कॉलेज के दिनों में व्यक्तिगत प्रयासों से विकसित किये गये हिंदी रंगमंच से ही फारुख के जीवन के एक और बहुत महत्वपूर्ण हिस्से की तार जुड़ती है। नाटकों के लिए बैक स्टेज अरेंजमेंट के लिए बहुत मेहनत करने वाले विद्यार्थियों में एक रूपा नाम की लड़की भी हुआ करती थी। यही रूपा रंगमंच के बैक स्टेज से निकल कर व्यावहारिक जीवन के फ्रंट स्टेज पर फारुख की जीवन संगिनी बनकर शामिल हुईं। वैसे यह कहना भी गलत नहीं होगा कि फारुख का बैक स्टेज रूपा जीवन भर संभालती रहीं।
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