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Channel: Culture-Vulture – Youth Ki Awaaz
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बचपन में घुलती सोशल मीडिया की लत बच्चों को बीमार कर रही है

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हंसता-मुस्कुराता बचपन, ना कोई परेशानी और ना कोई चिंता। दिनभर खेलना-कूदना, हंसी-मज़ाक मानों तो जीवन का खुशनुमा पल। सुबह-सुबह जब स्कूल जाने का होता है टाइम, तो रोज़ के बहाने पर मम्मी का डांटना, पापा का गुस्सा करना और हम फट से स्कूल जाने को हो जाते थे तैयार। स्कूल में भी पढ़ाई के साथ-साथ दोस्तों के साथ मस्ती और छुट्टी की बेल बजते ही खिलखिलाते हुए स्कूल से बाहर आना। शाम होते ही बाहर जाने की जल्दी, खेलना जो होता था।

पर क्या आज कहीं खो गया है बचपन? कहां गुम हो गई हैं शरारतें? वो शोर-शराबा, मस्ती भरी हंसी जाने अब क्यों सुनाई ही नहीं देती हैं। नन्हें हाथो में अब मोबाइल-फोन ने अपनी जगह बना ली है। वो नन्हीं हंसी अब यूट्यूब के वीडियोज़ और फोन में ऑनलाइन और डाउनलोडेड गेम्स ने छीन ली है। बच्चों की आंखें अब सिर्फ फोन में गड़ी रहती हैं। अब स्कूल की छुट्टी हो तो समझो पूरा दिन फोन के नाम हुआ और स्कूल से आते ही खाना भले ही भूल जाना पर फोन कहां है यही सवाल होता है।

मुस्कान की जगह चिड़चिड़ेपन और गुस्सैलपन ने ले ली है। घरों में आपस में बात करने का चलन कम हो गया है। आदर-सम्मान की परिभाषा भी बदल सी गई है। बच्चों में अपनेपन की भावनाएं नष्ट होती जा रही हैं। अकेलेपन और मानसिक रोगों की चपेट में सभी हैं, क्योंकि सोशल मीडिया द्वारा दूर-दराज के रिश्तेदारों और अनजान लोगों से संबंध तो सभी स्थापित करने में लगे हैं, पर जो रिश्ते पास हैं, साथ हैं उनसे दूर होते जा रहे हैं।

आप ही सोचिये कौन है इसका ज़िम्मेदार। सोशल मीडिया, इन्टरनेट या फोन ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि इनकी जो हमने लत बना ली है, वो लत ज़िम्मेदार है। यहां बात समझने वाली है, दिमाग के तारों को खोलने की ज़रूरत है। ज़्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है, अगर अपने इर्दगिर्द देखें तो बहुत कुछ समझ आ जायेगा। ये प्रकृति भी तो हमें बहुत कुछ बता देती है, पर उस ओर ध्यान ही नहीं है। मौसम हर साल बदलते हैं, नदियां भी अपने प्रवाह की दिशा की और अग्रसर है, फसले मौसम के हिसाब से उगती हैं, हवा की प्रवाह दिशा भी बदलती रहती है। अगर आपको ऐसे नहीं समझ आ रहा हो तो रोज़मर्रा की अपनी ज़िन्दगी को ही देख लीजिये। बच्चों के स्कूल का समय निश्चित है, अगर आप किसी ऑफिस या कहीं भी काम करते हैं तो वहां का समय भी निश्चित है। राष्ट्रीय और धार्मिक त्यौहारों को भी उनके समय पर ही मनाया जाता है।

फिर ये वक्त बेवक्त फोन क्यों अपनी जगह स्थापित कर रहा है। अपनी ज़िम्मेदारियों को बोझ क्यों समझा जाने लगा है। आजकल तो नवजात शिशु के हाथों में भी फोन दिखाई देता है। कभी खाना खिलाना है, तो कभी बच्चे को व्यस्त रखना है, जिससे आप काम कर सकें।

अब आप ही सोचिये जब 6 महीने के बच्चे को आप फोन का अधीन बना देते हैं तो भला 14 से 17 साल के बच्चों को कैसे उसकी लत से रोकेंगे। जिससे भी पूछो वो लम्बी सी मुस्कान के साथ और जाने कितनी महानता का काम किया है इस अंदाज़ से जवाब देता है कि इतना तो हमें भी नहीं पता जितना हमारे बच्चों को फोन के फीचर्स और गेमिंग के बारे में पता है।

पर क्या आपको पता है कि आप अपने बच्चे के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। बच्चों का यूं अपना पूरा समय फोन में इन्टरनेट के माध्यम से कार्टून देखना, यूट्यूब पर फनी वीडियोज़ देखना और गेम्स खेलना, 12 साल की उम्र में सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प इत्यादी पर एक्टिव हो जाना, उन्हें अंधकार की ओर ढकेल रहा है। ये आदतें जानलेवा भी साबित हो रही हैं।

सभी अभिभावकों का अब चौकन्ना होना बहुत अनिवार्य है। ये कोई बड़ाई वाली बात नहीं है, इन आदतों से बहुत से नुकसान हैं जिन्हें नज़रंदाज़ बिलकुल नहीं किया जा सकता है। इन आदतों का सबसे बड़ा असर बच्चे की मानसिकता पर पड़ता है, उनकी सोचने समझने, याद रखने की क्षमता, सृजनात्मक शक्ति भी घटती चली जाती है।

फोन तथा लैपटॉप/कंप्यूटर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन आंखों की रौशनी क्षीण कर देती है। कानों में इयरफोन लगाकर गाने सुनने की लत के कारण बहरापन आ जाता है। कमर में दर्द और सर में दर्द जैसी शिकायतें बच्चे अधिकतर करते हैं। ये सारी आदतें बच्चों को व्यक्तिगत समाज से दिन-प्रतिदिन दूर करती जा रही है। फोन और लैपटॉप/कंप्यूटर में व्यस्त रहने की आदत बच्चों को माता-पिता से भी दूर ले जा रही है। फोन से निकलने वाले रेडिएशन कैंसर जैसी घातक बीमारी को पनपने का भी एक अवसर है, इससे ब्रेन कैंसर की सम्भावनाएं बढ़ती है।

खुद अभिभावकों का कहना है कि बच्चों के हाथ से फोन लेना महाभारत के युद्ध के समान है। और किशोरों में तो ऐसी लत लगी है कि 5 मिनट बोल-बोलकर 3 से 4 घंटे बहुत सरलता से व्यतीत कर लेते हैं। खाने पीने के प्रति रुझान कम होने के कारण शरीर को पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं और शरीर बहुत सी बीमारियों का घर बन जाता है।

फेसबुक पर कई फीसदी आईडी फर्ज़ी हैं।  जो किशोर सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं ज़्यादातर साइबर बुलिंग जैसी घातक समस्याओं का शिकार हो जाते हैं और समस्याओं का सामना ना करने की स्थिति में आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।

अब समाधान और सावधानी अभिभावकों को समझनी है। इस दिशा में शिक्षक भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। अभिभावकों को समय सीमा तय करनी होगी और स्वयं भी अपना फोन छोड़कर अपना समय बच्चों को देना होगा। सही गलत में फर्क अभिभावक और शिक्षक भली भांति समझा सकते हैं।

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