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“क्या अपने करियर को संभालने के लिए मोदी भक्ति का सहारा ले रहे हैं पीयूष मिश्रा”

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Created by Manish Jaisal

क्या आने वाले दिनों में पीयूष को भाजपा सरकार फ़ायदा पहुँचायेंगीं ?

अभिनेता, लेखक और गीतकार पीयूष मिश्रा अपने कलात्मक अंदाज़ के लिए जितना सराहे जाते हैं उतना अपने बयानों के लिए भी चर्चा में रहते हैं। कभी भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को लौंडा कहकर संबोधित करते हुए वो सोशल मीडिया में ट्रोल होते हैं तो वहीं हाल ही में मोदी सरकार के कार्यकाल को लेकर अपनी फेसबुकिया टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “66 साल का रायता 4 साल में समेट पाना किसी सरकार के बस में नहीं है”

पीयूष मिश्रा की अपनी आवाज़ और लेखनी में जितनी सख्ती और लचीलापन साथ-साथ है वह फिल्म को अलग ऊचाइयों में ले जाने के लिए काफी होता है, फिर चाहे वह गैंग्स ऑफ वासेपुर, समीर, ब्लैक फ्राइडे, गुलाल जैसी अन्य फिल्में क्यों ना हों।

दरअसल इन फिल्मों के डार्क शोड में समाज की सच्चाई को ही किसी ना किसी रूप में पेश किया गया है। विचारों में खुलापन लिए पीयूष मिश्रा लंबे समय तक अच्छी फिल्मों में अपना योगदान दे रहे थे। ‘कह के लूंगा’ से लेकर ‘इक बगल में चांद होगा’ जैसे गीतों में पीयूष जिस तरह की सोच को अपनी लेखनी से प्रस्तुत कर चुके हैं वह ब्रिटिश और आज़ाद भारत के बीच के समाज से ही उठाई गई हैं।

जहां एक ओर भुखमरी, देशप्रेम, शोषण, बलात्कार जैसी अन्य समस्याएं रही हैं, उसी के इर्द-गिर्द ही पीयूष के गाने और संवाद हमें सुनाई देते आए हैं। फिलहाल पीयूष ने भोपाल में पत्रिका प्लस को दिये एक विशेष साक्षात्कार में जिस तरह से अपनी बात रखी है वह गौर करने लायक है।

एक ओर जहां पीयूष बीते 66 वर्षों के माहौल को एक रायते के रूप में देख रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ अनुराग जैसे फिल्मकारों को बैन करने की भी सलाह दे रहे हैं। अनुराग को यह कहते हुए उन्होंने नकार दिया कि उसे रोका नहीं गया तो वो कुछ भी बना देगा। यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि पीयूष मिश्रा को हिन्दी सिनेमा में अपनी एक अलग छवि अनुराग की ही फिल्मों से मिली थी।

उनका कवि चरित्र, डार्क शेड फिल्मों के साथ मिलकर एक नई रचना को निर्माण करता दिखता है। पर्दे पर दिखता गोलीबारी का दृश्य हो, रक्तपात हो और पार्श्व में ‘तेरी कह के लूंगा’ को सुनकर दर्शक के दिलों दिमाग में जिस तरह के चित्र बनते रहे हैं, उन पर शोध हो तो वह विज़ुअल कम्युनिकेशन के क्षेत्र में निश्चित ही एक अलग तरह का काम होगा और इस दिशा में पीयूष के गीतों की भूमिका भी आसानी से पता लगाई जा सकेगी।

लीजेंड ऑफ भगत सिंह फिल्म के संवाद लेखक पीयूष जब भगत सिंह और उनके दोस्तों को लौंडा कहने के बाद भी यह कहते पाये गए थे कि उन्हें यह कहने में किसी तरह का मलाल नहीं है। सोशल मीडिया पर उनकी हो रही थू-थू के बाद उन्होंने यह भी माना था कि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह खुद सोशल मीडिया पर है ही नहीं।

हमेशा से सेंसरशिप का विरोध करने वाले पीयूष शायद भूल गए हैं कि इन्हीं चार वर्षों में सेंसरशिप विवाद सबसे ज़्यादा हुए हैं। साथ ही राष्ट्रीय और निजी संपत्ति के साथ कानून को हाथ में लेने वाले संगठनों की भूमिका भी स्पष्ट रूप में देखी और समझी गयी है। तमाम तरह के सामाजिक संगठन जिस तरह से फिल्मों को लेकर सड़कों पर विरोध और अराजकता करते हुए देखे गए वह बीते सालों में कभी नहीं हुआ। इमरजेंसी अपवाद है।

क्या पीयूष के मन में 66 वर्षों के रायते के बाद इधर के वर्षों के कामकाजों पर भी इतनी ही स्पष्ट राय अब तक बन पाई है? पीयूष जी यह कहते नहीं थक रहें कि 66 वर्षों के फैले रायते को समेटने में कम-से-कम 10 वर्ष तो लगेंगे ही। ऐसे में उन्हें यह भी बताना चाहिए कि जिस विधा से उनका गहरा नाता रहा है और उस पर लगने वाली अलोकतांत्रिक बन्दिशों पर रोक कब लगेगी?

फिल्म सेंसरशिप को लेकर वर्तमान सरकार का स्पष्ट रुख क्यों नहीं हो पा रहा है? मोहल्ला अस्सी से लेकर, पद्मावती, सेक्सी दुर्गा/ एस दुर्गा, उड़ता पंजाब, बंदूकबाज़ जैसी अनेक फिल्में जो सेंसर विवादों में चर्चित हुईं उनको लेकर भी उन्हें सरकार से क्या प्रश्न नहीं पूछने चाहिए?

केंद्र सरकार हर बार अपनी भूमिका से पल्ला झाड़ती रही है। सरकार ने सेंसर बोर्ड में अपने नुमाइंदे तो बैठाए लेकिन सेंसर नीति को लेकर चुप्पी क्यो नहीं टूटी? श्याम बेनेगल कमेटी कि अनुशंसा पर सरकार को अब तो जवाब देना चाहिए।

फिलहाल तो यह सवाल उन्हें वर्तमान सरकार से भी करने चाहिए जिसे वह यह कह कर समर्थन दे रहे हैं कि वर्तमान सरकार में घोटाले नहीं हो रहे, गंगा सफाई और स्वच्छता को लेकर सजगता आई है।

नीरव मोदी से लेकर मेहुल चौकसी, फिर गंगा की स्थिति का जस का तस होना, धर्म के नाम पर हत्याएं, दिन दहाड़े गोली मारना और उसे खुले तौर पर स्वीकारना कई मायनों में एक शोध को बढ़ावा देता है। चार साल के काम को इतनी आसानी से पीयूष आंकते हुए किसी नतीजे पर कैसे पहुंच सकते हैं?

मौजूदा मॉब लीचिंग को घटनाओं को भी दरकिनार करते हुए 1984 के सिख दंगों को मॉब लीचिंग का सबसे बड़ा उदाहरण माना है। उन्होंने बताया कि एनएसडी में अध्ययन के दौरान उन्होंने यह माजरा अपनी आंखों से देखा था।

फिलहाल पीयूष मिश्रा ने साफ तौर पर यह कह दिया है कि वे नरेंद्र मोदी का अनुमोदन तो नहीं करते लेकिन इन चार सालों में निजी तौर पर उनका मानना है कि चीज़ें काफी बदली हैं।

यह बदलाव क्या अब हमें उनके अगले काम में देखने को मिलेगा? साथ ही मोदी जी का कोई विकल्प नहीं है जैसे बयान भी वह देते रहे हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि कॉंग्रेस जब सत्ता में थी तब उनके लिखे लिरिक्स ‘तेरी कह के लूंगा’ को सेंसर बोर्ड ने पास किया था। जिसका इस्तेमाल अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में किया था। फिलहाल कयास लगाए जा रहे हैं कि वर्तमान सरकार उनके पक्ष में बोलने वाले पब्लिक फिगर को अच्छे ओहदे पर बिठा देती आई है।

ऐसे में देखना होगा पीयूष की यह यात्रा कहां जाकर खत्म होती है? क्या उन्हें भी इन बयानों का कुछ फायदा होगा या नहीं? क्योंकि इससे उन्हें नुकसान तो बिलकुल नहीं हैं क्योकि वे सोशल मीडिया पर है ही नहीं।

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