आर के फिल्म्स लगभग बिकने को तैयार है। कपूर परिवार ने इसे बेचने का फैसला किया है। पेशावर में जन्मे राजकपूर ने सन् 1948 में, ठीक भारतीय स्वतंत्रता के बाद इसे स्थापित किया था। उस वक्त वो केवल 24 साल के थे और इसी साल इस बैनर तले ‘आग’ बनाई गई थी, जो राजकपूर द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी। यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई।
इसके बाद बरसात बनाई गई, जिसके बारे में सिनेमा आलोचकों का कहना था, जो आग में बचा खुचा रह गया है, वो बरसात में बह जाएगा। बावजूद इसके बरसात ज़बरदस्त हिट साबित हुई। इसी फिल्म का वायलिन वाला दृश्य बाद में आर के फिल्म्स की पहचान बनी। अर्थात नरगिस और राजकपूर वाले दृश्य को इसका लोगो बनाया गया। यह सन् 1949 की बात है। इसके बाद के वर्षों में आवारा, बूट पॉलिश, जागते रहो, श्री420 जैसी नायाब और बेहतरीन फिल्मों ने स्टूडियो को नई ऊंचाइयां दी।
भारत की आज़ादी के बाद सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा था उसमें राजकपूर ऐसे फिल्मकार थे जिन्होंने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी। उनका सिनेमा को लेकर एक विज़न था, इनकी फिल्मों ने मानवीय संवेदनाओं और सिनेमाई किस्सागोई को एकदम अलग ही रंग में रंग दिया।
राजकपूर की फिल्मों में सामाजिक विद्वेष, मजबूरी एवं मानवीय रिश्तों का ज़बरदस्त चित्रण किया जाता था, साथ ही सामाजिक संदेश भी होता था, जो आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। राजकपूर ने नरगिस के साथ कई देशों की यात्रा की और आर के फिल्म्स को अलग ही मुकाम पर पहुंचा दिया।
राजकपूर का रूस प्रेम कमोबेश सभी जानते ही हैं। इनकी फिल्मों को विदेशों में भी उतनी ही शोहरत मिली जितनी भारत में। द ग्रेट शोमैन ऑफ इंडिया, चार्ली चैपलिन ऑफ इंडिया, शोमैन जैसे नामों से राजकपूर साहब को नवाज़ा गया। ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे धुरंधर लेखक, शंकर जयकिशन, राधू करमाकर जैसे लोग इस स्टूडियो का हिस्सा बन चुके थे। राधू करमाकर करीब 4 दशक तक इससे जुड़े रहें। नरगिस ने करीब 15 फिल्मों में इसके लिए काम किया।
जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर, बॉबी, सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग, राम तेरी गंगा मैली जैसी बेहतरीन और कलात्मक फिल्में कालांतर में इस स्टूडियो की पहचान बन चुकी थी। कहते हैं कि मेरा नाम जोकर बनाते वक्त इस स्टूडियो को ज़बरदस्त अर्थिक घाटा हुआ और स्टूडियो गिरवी रखना पड़ा। बाद में बॉबी से हुई कमाई से इसका नुकसान पूरा किया गया।
अब सत्तर का दौर आ चुका था ठीक इसी वक्त रणधीर कपूर ने स्टूडियो ज्वाइन किया। उन्होंने फिल्म कल आज और कल से निर्देशन की शुरुआत की इसके बाद धरम करम भी बनाया। राजकपूर अपनी फिल्म हिना जो भारत पाक बॉर्डर पर बसी प्रेम कहानी है, का निर्माण कर ही रहे थे कि सन 1888 में उनकी मृत्यु हो गयी। एक बार ऐसा लगा कि आर के स्टूडियो की भी कहानी खत्म हो गयी लेकिन 91 में इस अधूरी फिल्म को पूरा कर लिया गया। इसके बाद राजीव कपूर ने प्रेमग्रंथ नाम की फिल्म बनाई। ऐसा लग रहा था इस विरासत को कोई ना कोई संभाल लेगा लेकिन ऋषि कपूर द्वारा निर्देशित आ अब लौट चलें इस स्टूडियो की आखिरी फिल्म साबित हुई जो 99 में बनाई गई थी।
इसके बाद किसी भी फिल्म का निर्माण इस बैनर तले नहीं हुआ। स्टूडियो की हालत खस्ता हो चली थी। सिनेमा में नए-नए लोकेशन और तकनीकों का इस्तेमाल होने लगा था। लोगों का नज़रिया भी अब सिनेमा को लेकर बदलने लगा था। तत्कालीन फिल्मकार फिल्मों पर अपना असर रखने लगे थे। महंगे-महंगे सेटों की जगह आउटडोर शूट ने ले ली थी। विदेशी लोकेशन और कम बजट की फिल्मों का एक दौर चल पड़ा था। ऐसे में आर के स्टूडियो भाड़े पर दिया जाने लगा। टीवी शो, डेली शॉप और रिएलिटी शो औने पौने दाम पर शूट हो रहे थे। प्रोड्यूसर के डिमांड बढ़ते जा रहे थे। लोकेशन चैंबूर है तो पार्किंग नहीं है, एसी नहीं है। ऐसी शिकायतें कपूर परिवार को आने लगी थीं। वो इसे बीच-बीच में रेनोवेट भी करवाते रहें।
कपूर परिवार का सिनेमा पर प्रभाव अब भी कम नहीं हुआ था। करिश्मा कपूर और करीना कपूर, रणबीर कपूर सिनेमा में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। वहीं उनकी विरासत संभालने वाला कोई नहीं बचा है। ऐसा स्टूडियो की हालत देखकर कहा जा सकता है क्योंकि इस दरम्यान कपूर फैमिली के किसी भी सदस्य ने फिल्म निर्माण में दिलचस्पी नहीं दिखाई।
राजकपूर ने भारतीय सिनेमा को जितना दिया वह सिनेमा इतिहास में अतुलनीय योगदान के रूप में सदा के लिए याद रखा जाएगा। साथ ही आर के फिल्म्स के योगदान को भी सराहा जाएगा। आज भी राजकपूर की फिल्मों का गीत कहीं भी बज रहा हो हमारे कान स्वत: उधर चले जाते हैं।
राजकपूर को भारतीय दर्शकों का प्रेम ही नहीं मिला, बल्कि सिनेमा ने भी उनको वही सम्मान वही इज्ज़त, वही शोहरत और उतना ही प्रेम और अपनापन दिया। पद्मश्री, दादा साहब फाल्के, फिल्मफेअर के साथ इनका नाम खुद-ब-खुद जुड़ता चला गया।आर के स्टूडियो के निर्माण से अब तक 70 साल बीत चुके हैं ऐसे में आधा वक्त यानी 1985 तक यह आने बेहतरीन दौर में रहा और इसके उत्तरार्ध में इसकी हालात खराब होती चली गयी। करीब 20 साल हो चुके हैं इस बैनर तले आखिरी फिल्म निर्माण को।
बात सन 1916 की है जब यहां एक शो की शूटिंग चल रही थी तो स्टूडियो में ज़बरदस्त आग लगी। आग के चलते अभिनेत्रियों के कॉस्ट्यूम, मेरा नाम जोकर का क्लोनमास्क, जिस देश में गंगा बहती है की बंदूकें, आवारा, संगम और बॉबी में इस्तेमाल हुआ ग्रैंड पियानों भी जल गया।
मुम्बई मिरर से एक साक्षात्कार में ऋषि कपूर ने कहा,
स्टूडियो जो करीब 2 एकड़ में फैला है उससे उनकी कई यादें जुड़ी हैं। उनके पिता की यादें जुड़ी हैं। वो उन्हीं गलियारों में पले बढ़े हैं। इसे बेचना हमारे लिए कठिन फैसला है। शुरू में हमलोगों ने स्टूडियो को स्टेट ऑफ द आर्ट प्रौद्योगिकी के साथ फिर से बनाने का विचार किया लेकिन पाया कि स्टूडियो को फिर से बनाने में होने वाला निवेश उतना राजस्व पैदा नहीं करेगा। इसलिए इसके आधे हिस्से को बेचने का फैसला किया गया है।
अब जब यह स्टूडियो बिकने को तैयार है तो ऐसे में यही कहा जाय कि राजकपूर का साथ ही आर के फिल्म्स का असल साथ रहा। राजकपूर के जाने के बाद आर के फिल्म्स भी लगभग चला ही गया था। बचा खुचा कसर इसे बेचकर पूरा कर लिया जाएगा। बाकी हम और आप गुनगुनाते रहिये।
साजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
ना हाथी है ना घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है।।
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