कृष्ण जन्माष्टमी उन चुनिंदा त्यौहारों में से एक है जो भारत के अधिकांश हिस्सों में धूम-धाम से मनाया जाता है। कहीं कृष्ण की उपासना तो कहीं राधा-कृष्ण की उपासना और दही-हांडी तोड़ने की परंपरा चलती आ रही है लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में फेस्टिबल भी फैंसी होते जा रहे हैं। कई नए रंग-रूपों में ये त्यौहार देखने को मिल रहे हैं। लगभग पिछले सप्ताह फेसबुक के हर दूसरे पोस्ट में कॉमन चीज़ देखने को मिल रही थी, सबके घर के बच्चे या तो कृष्ण बने हुए दिख रहे थे या तो राधा। स्कूलों में खासकर प्ले और जूनियर स्कूलों में तो फैंसी ड्रेस कॉम्पटीशन की तर्ज पर जन्माष्टमी मनाया जाता है और लड़कों को कृष्ण और लड़कियों को राधा के कॉस्ट्यूम में तैयार किया जाता है।
संस्कृति को जीवंत रखने के साथ एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी के नाम पर इस तरह धर्म संस्कृति से सम्बन्धित कार्यक्रमों को खूब बढ़ावा मिल रहा है लेकिन ये सब देखकर मेरे मन में कई सवाल उठते रहते हैं। हमारी धार्मिक पौराणिक कथाएं हमें कितना कुछ सिखाती हैं लेकिन क्या हम उनको जीवन में अमल कर पाते हैं?
आज कृष्ण और राधा बने बच्चे सबको बहुत प्यारे लगते हैं लेकिन बड़े होने पर स्थित बदल जाती है। समाज को हज़ारों लड़कों को कृष्ण बनता देखना स्वीकार रहता है अर्थात वो द्रौपदी के चीर-हरण में रक्षक की भूमिका हो या पत्नी के रहते अनगिनत प्रेयसी (वर्तमान समय में गर्ल-फ्रेंड) से प्रेम करना या अनगिनत गोपियों के साथ अठखेलियां करने की भूमिका हो, सब तरह से परिवार और हमारे समाज को पुरुषों का कृष्ण बनाना स्वीकार्य रहा है।
वहीं दूसरी ओर बेटियों को असल जीवन में बड़े होने के बाद राधा की तरह जीवन जीने का हक नहीं है। लड़कियां क्या पढ़ेंगी, कितना पढ़ेंगी, कब तक पढ़ेंगी का मुद्दा रहा हो या फिर उनको कैसे कपड़े पहनने हैं, किन लोगों को अपना दोस्त बनाना है, किसे जीवनसाथी बनाना है, इन फैसलों को लेने का संवैधानिक अधिकार तो है लेकिन ज़मीनी रूप में वो इन अधिकारों से आज भी वंचित हैं। राधा के रूप में आज अपनी बच्चियों को सजाने-संवारने वाले मां-बाप तक को भी यह स्वीकार नहीं होगा कि उनकी बेटी बड़े होकर किसी कृष्ण की प्रेम में समर्पित हो जाए।
असल जीवन में राधा बनती लड़कियों को हमारा समाज कुंठित नज़रों से देखता है। हम राधा-कृष्ण और राधा-कृष्ण का रट लगाते हुए खुद को धार्मिक भी दिखाते हैं लेकिन समाज में हकीकत में कोई युवा जोड़ा प्रेम कर रहा हो तो जाति, धर्म, वर्ग और रंग-रूप सब देखने लगते हैं और देखते ही देखते समाज प्रेम का अर्थात आधुनिक राधा-कृष्ण का विरोधी बन बैठता है।
फिर ज़रा सोचिए किस बात की जन्माष्टमी मना रहे हैं हम? अपने आदर्श रूपी भगवान को प्रतिबिम्ब बनाकर रखना, उनकी मूर्ति की पूजा करना, अपने बच्चों को किसी खास दिन कृष्ण-राधा की तरह सजाने-संवारने तक ही सीमित कर चुके हैं। वास्तविकता में ऐसा लगता है कि धार्मिक बनती भीड़ को इनसब से कोई लेना-देना तक नहीं है। धर्म का मर्म बस प्ले स्कूल के फैंसी शो की तरह होकर रह गया है, पौराणिक कथाओं को जीने से कोई लेना-देना नहीं है।
अब ज़रूरत है समाज में हर घर में राधा हो जो अपने पसंद के विरुद्ध शादी निभाने की जगह विरोध करे, अपने लिए जो बेहतर लगे उसे अपना बना सके, समाज को सिसकती-ठिठकती सिर्फ कपड़ों में लिपटी राधा नहीं चाहिए बेबाक, बेपरवाह, बुलंद अंदाज़ वाली राधा बनती लड़कियों की दरकार है।
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