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“फॉल्स रियलिटी वाली फिल्मों के बीच एक आईना है मंटो”

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प्रिय नंदिता दास,

सबसे पहले हम सबको मंटो से रुपहले पर्दे पर रूबरू कराने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। ज़्यादातर फिल्में ऐसी होती हैं, जो हमारे लायक नहीं होतीं पर कुछ ऐसी भी फिल्में होती हैं, जिनके हम काबिल नहीं होते हैं, ऐसी फिल्मों के लिए हमें काबिल बनना पड़ता है।

सआदत हसन मंटो के कुछ मशहूर अफसाने मैंने पहले भी कई दफे पढ़े थे और उन अफसानों के गालिबन, सारे किरदार आज भी मेरे ज़ेहन में मौजूद हैं लेकिन आज पहली बार लगा ये किरदार मेरे जे़हन और किताबों के पन्नों से बाहर निकलकर बड़े पर्दे पर जीवंत महसूस हो रहे हैं।

हमें उस तरह की फिल्में देखनी की आदत है जिनमें कारें आसमान में 10 -20 दफे गोते खाए। मतलब जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं हो। एक फॉल्स रियलिटी में रहने वाले एक बड़े तबके के सामने आप एक आईना लेकर खड़ी हो गईं। हमने वो आईना जिसमें हमारी बदसूरती, खामियां, कमियां सारे दोष दिखाई दें, वो एक अरसे पहले घर के बाहर फेंक दिया था।

एक ऐसी ज़िन्दगी पसंद लोगों के सामने आप मंटों का जीवन और उसके समानांतर उनके अफसानों को एक बेहतरीन फिल्म में समेट कर लाती हैं लेकिन इन सत्तर सालों में हम कितने काबिले बर्दाश्त हुए हैं, मंटो या अन्य किसी तरक्की पसंद अफसानानिगारों, शायरों के अफसानों, नज़्मों के अल्फाज़ सहजता से स्वीकारने को? मंटो को तो तरक्की पसंद अल्फाज़ से भी एतराज़ था, हर शख्स को तरक्की पसंद होनी चाहिए यहीं उनका यकीन था।

आपकी फिल्म हमें सात दशक पहले के मुल्क में तकसीम होने के दौर में ले जाती है। बंटवारे के वो खौफनाक मंज़र, जहां इंसान का वजूद एक मज़हब तक महदूद कर दिया जाता है। जब सिर्फ इंसान होना नाकाफी सा महसूस होता हो और मज़हब का उन्माद दिलों से निकलकर जे़हन में चढ़ जाता है।

आज सात दशकों बाद भी हम खुद को उसी हालात के इर्द-गिर्द महसूस करते हैं, जहां कुछ लोग मुख्तलिफ मज़हबों के दरमियान एक लंबी दूरी पैदा करना चाहते हैं, जो अंगारे बंटवारे के दौरान करोड़ों इंसानों की त्रासदी का कारण थे वो आज भी शोले बनकर आग भड़का रहे हैं, जिसकी आंच तले आम आवाम झुलस रहा है। आज भी कितनी सरलता से हमारे ही हमवतनों को पाकिस्तान का रास्ता दिखाया जाता है, जिनके पुरखों की खाक इस मिट्टी में दफन है, उनसे वफादारी का हिसाब बराबर मांगा जाता है।

आज एक अमन पसंद इंसान का अंजाम भी टोबा टेक सिंह की तरह हो रहा है, जहां वो मज़हब के बीच अपनी मुकम्मल वजूद की तलाश में पागल होकर ये बड़बड़ा रहा है, “ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह”। जहां पर वो ज़िन्दगी की कशमकश से हारकर अपने अंतिम मुकाम पर पहुंचकर, लड़खड़ाकर औंधे मुंह गिरता है, वहां आज भी दोनों तरफ मज़हबी कांटेदार तारे मौजूद हैं और उनके दरमियां है टोबा टेक सिंह।

नंदिता, आपके निर्देशन में ननवाजु़द्दीन सिद्दीकी पर्दे पर तल्ख तेवर और बेबाक अंदाज़-ए-बयां जिस बखूबी से निभा रहे थे, ऐसे में नवाजु़द्दीन सिद्दीकी और मंटो में फर्क कर पाना बेहद मुश्किल था। मंटो ने ताउम्र जो देखा वो लिखा, बिना किसी बनावट के, यही तल्खियां उनके अफसानों में भी बयां होती आई हैं। उनका खुद का जीवन संघर्ष और कोर्ट केस के चक्कर से जूझते हुए बेबाक, बेधड़क, बेखौफ अफसानों और उनके किरदार बुनना ये वही कर सकता था जिसका नाम सआदत हसन मंटो था।

आज के दौर में ऐसी बेखौफ, बेबाकी की दरकार तो हर शख्स से है पर क्या वो इंसान सभी खौफ से आज़ाद होकर अपने ख्यालात रख सकता है? इसी मोड़ पर ये फिल्म हमें छोड़ जाती है कई सवालों और फैज़ की नज़्म “बोल की लब आज़ाद हैं तेरे” के साथ। कई सावलों के जवाब दे जाती है, फैज़ की नज़्म “बोल की लब आज़ाद हैं तेरे”।

आपका कदरदान
अभिषेक अज़ीमाबादी

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