तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर वाले केस में अमिताभ बच्चन से पूछा गया कि उनकी क्या राय है, तो उनका जवाब था कि ना तो उनका नाम तनुश्री है, ना ही नाना, तो उनकी राय क्यों पूछी जा रही है?
नाम तो अमिताभ का सलमान भी नहीं है लेकिन उस पर उनकी राय यह थी कि फिल्म इंडस्ट्री एक परिवार की तरह है तो हम परिवार के सदस्य के तौर पर सलमान के सपोर्ट में खड़े हैं।
सही है कि शब्द हों तो आप कुछ भी बोलकर अपना बचाव कर लेते हैं। मेरी राय यह है कि हर उद्योग को, हर समाज को वर्क स्पेस मोलेस्टेशन, फोर्स्ड सेक्स के खिलाफ बोलना चाहिए। ये बात बिलकुल सत्य है कि हर जगह स्त्रियों का शोषण होता है। अधिकांश मामलों में कोई व्यक्ति अपनी पोजिशन और सामने वाले की किसी भी मजबूरी का फायदा उठाता है।
यहां पर अमिताभ बच्चन का ‘नाम-नाम’ खेलना कोरी लफ्फाज़ी है। ये बड़े स्तर की बयानबाज़ी है जो कि हिन्दी और अंग्रेज़ी बोलने में दक्ष आदमी बोल जाता है और किसी पत्रकार की इस पर राय नहीं दिखती। खैर, पत्रकारिता उद्योग तो नारियों के शोषण में अगर सबसे ऊपर ना भी हो, तो दो से तीन नंबर पर तो होगा ही।
अब आते हैं तनुश्री के वीडियो पर। हो सकता है हरासमेंट हुआ हो लेकिन जहां तक बात हो इस मामले में बाकियों से एक्सपेक्टेशन की तो आखिर इसके बावजूद लोग नाना के साथ काम क्यों कर रहे हैं? तनुश्री के इल्ज़ाम को बाकी लोग सच क्यों मानें? क्या तनुश्री पुलिस के पास गईं? उस केस का क्या हुआ? इस बात पर वो शांत हैं। बाद में तनुश्री कहती हैं कि मैं सबका नाम नहीं लूंगी क्योंकि कही-सुनी बातें हैं। तो फिर आपकी बात को सही मानकर कोई किसी के साथ काम कैसे करना बंद कर दे? आप नाम लीजिए, बताइए कि किसने आपको किसके बारे में क्या कहा। बहुत विरोधाभास है उनकी बातों में।
ये बताना भी ज़रूरी है कि मोलेस्टेशन के मामलों को साबित करना आसान नहीं होता है। साथ ही, मोलेस्टेशन के इल्ज़ाम लगाना उसी असंभव के उलट बहुत आसान है। इसमें अधिकतर केस में बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि हमारा समाज आज भी सर्वाइवर शेमिंग में ही यकीन रखता है। यह एक सामाजिक समस्या है कि बलात्कार या मोलेस्टेशन सर्वाइवर के साथ बहुत कम लोग ही खड़े होते हैं।
कुल मिलाकर ये मामला उतना आसान नहीं है, ना तो सर्वाइवर के लिए, ना ही कोर्ट के लिए। कोर्ट कैसे फैसला देगी अगर इल्ज़ाम साबित नहीं हो पाता है तो? या तो कोई सर्वाइवर दोबारा उस व्यक्ति को फंसाने के लिए पूरी तैयारी के साथ जाए, या फिर तमाम ऑफिसों में हर केबिन में कैमरे और माइक्रोफोन लगाए जाएं। क्या यह संभव है? नहीं।
उन मामलों का क्या जहां बचपन में लगातार बच्चियों और बच्चों का यौन शोषण होता है? वो कैसे साबित होगा? ऐसे मामलों में तो बच्चे समझ ही नहीं पाते कि ये हो क्या रहा है। फिर इसका केस बनेगा कब और कैसे?
हैशटैग चलाने से और मी टू मूवमेंट से डरे हुए, पुराने सर्वाइवर्स को आवाज़ ज़रूर मिलती है पर साथ ही इस पितृसत्तात्मक समाज में उसके आगे बढ़ने के सारे दरवाज़े भी बंद हो जाते हैं। तनुश्री दत्ता को बॉलीवुड में ज़्यादा फिल्में नहीं मिल पाईं लेकिन अगर वो बॉलीवुड की कामयाब हीरोइन होतीं भी तो क्या अब अपनी आवाज़ उठाने के बाद उन्हें कोई फिल्म मिल पाती? मुझे संदेह है।
दूसरी बात यह भी है कि जो मीडिया संवेदनशील होकर तनुश्री दत्ता को बोलने के लिए बीस मिनट का समय देता है, उसी मीडिया के वही एंकर दो मिनट के ब्रेक के बाद मुस्कुराते हुए लेटेस्ट फैशन और स्टाइल के ऊपर बात करने लगते हैं। इस तरह के ट्रीटमेंट के बाद मीडिया अपने आपको इस मूवमेंट का स्टेकहोल्डर कैसे मान सकती है?
यहां पर सबका स्वार्थ दिखता है। अमिताभ नहीं बोलेंगे क्योंकि ये उनकी दोस्ती, पर्सनालिटी, ब्रॉन्ड आदि को सूट नहीं करता। उन्हें एक असफल अभिनेत्री के कथित शोषण पर बोलने के लिए ये देखना पड़ता है कि क्या उसने ‘अमिताभ’ बोला है या ‘नाना’ लेकिन सलमान पर बोलने के लिए उनके पास वक्त है, शब्द हैं, सबकुछ है।
इससे एक बात समझ में आती है कि ये लड़ाई नारीवाद और नारीवादियों की ही है। इसमें आप वैसे लोगों से आशाएं मत रखिए जिनके लिए हर चीज़ विशुद्ध व्यापार है। हॉलीवुड के सबसे बड़े सिनेमा प्रोड्यूसर्स में से एक हार्वी वाइनस्टीन की कम्पनी बंद हो गई क्योंकि वहां सारी महिलाओं और कुछ नारीवादी मर्दों ने इस विषय पर खुलकर अपने विचार रखें। वहां उन्होंने कदम उठाएं, जो इस बात पर गम्भीर थे क्योंकि अचानक से सारे सर्वाइवर्स ने बड़े नामों के बारे में बोलना शुरू कर दिया।
एक आदमी के खिलाफ एक आवाज़ आए तो उसे झूठा कहा जा सकता है लेकिन उसी के बारे में लगातार आवाज़ें, अलग-अलग मुंह से आएं, तो स्थिति की गम्भीरता का पता चलता है।
जो पावर में हैं, पोजिशन में है, वो तो इसलिए भी नहीं बोल पाते कि उन्हें डर होता है कि उनके बोलने पर कहीं उनके इसी तरह के शोषण के मामले बाहर ना आ जाएं। जहां ये सहमति से होता है, वहां समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि वर्क प्लेस में रोमांस नहीं होता, सहकर्मियों के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनते। ये सब होता है, प्रचलन में है लेकिन होता तो बहुत कुछ ज़बरदस्ती भी है, प्रचलन में भी है, सबको पता भी है लेकिन एक डर है जिसके कारण वो बातें सामने नहीं नहीं आ पातीं।
जब तक इस डर का समाधान नहीं होगा, आप मानकर चलिए कि आपके बगल में बैठी हर लड़की को इसके बुरे अनुभव से गुज़रना पड़ेगा।समाज ऐसा ही है, हमने इसे ऐसा बनाया है कि पहले तो अवसर कम होंगे और होंगे भी तो तुम्हें अपनी क्षमता के साथ-साथ शरीर से भी उसकी कीमत चुकानी होगी क्योंकि ये अवसर एक एहसान की तरह जताए जाते हैं।
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