“लोक आस्था का महान पर्व छठ” बिहार झारखण्ड का एक महापर्व माना जाता है और इस पर्व को लेकर हमारे समाज में कई पौराणिक कथाएं मौजूद हैं। ये कथाएं सूर्य और उनकी पत्नी उषा की आराधना से जुड़ी हुई हैं। इस पर्व की अपनी कई विशेषताएं हैं जिनकी वजह से यह पर्व बहुत ही पवित्र माना जाता है।
हमारा समाज सदियों से पुरुष प्रधान रहा है और पुरुषों का ही वर्चस्व समाज के हर निर्णय में काम करता है। शादी-विवाह या घर में खाने तक का निर्णय आज पुरुष वर्ग ही करता है। इतना ही नहीं पुरुषों को ही घर के लगभग सभी निर्णय लेने के अधिकार होते हैं, जो आज भी हमारे समाज में कायम है।
इन सबके बीच छठ पर्व अपने आप में एक पवित्र पर्व है और देश के दो राज्यों में इस पर्व को सबसे ज़्यादा महिलाएं ही करती हैं। हमारा समाज का पुरुष वर्ग इस पर्व की तैयारी के लिए बड़े ज़ोर-शोर से साफ सफाई के साथ अन्य ज़रूरी कार्य करता है। मतलब इस दौरान पूरी समानता का भाव होता है और इस वक्त महिलाओं का सम्मान पूरे पर्व तक इसी समाज के पुरुषों की नज़रों में सूर्य से भी ज़्यादा पवित्र होता है।
इस तरह देखा जाए तो हमारा समाज इस पर्व के दौरान पूरी शांति और विधि व्यवस्था के साथ पूरे कार्यक्रम में महिलाओं को सम्मान देते हुए भाग लेता है। अपनी लोक आस्था को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। इस दौरान घरेलू हिंसा की घटनाएं कम हो जाती हैं और जो भी महिलाएं घर से बाहर या कहीं गई हुई हैं, उन्हें भी पूजा में शामिल होने के लिए बुला लिया जाता है। साथ ही अगर आस पड़ोस में किसी के यहां पर्व नहीं हो रहा है तो उसे भी अपने घर प्रसाद के लिए निमंत्रण देकर बुलाया जाता है।
मतलब साफतौर पर कहा जाए तो हम इस लोक आस्था में पूरी तरह डुबकी लगाकर ईश्वर के साथ जुड़ने की अनुभूति और आनंद लेते हैं और इस दौरान महिलाओं को जो सम्मान देते हैं, शायद वही सम्मान एक शांति को जन्म देता है।
अब बात करते हैं हिन्दू धर्म के ‘मनुस्मृति’ की, जो कहता है, “असत्य जिस तरह अपवित्र है, उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं”। यानि पढ़ने का, पढ़ाने का, वेद-मंत्र बोलने का या उपनयन का स्त्रियों को अधिकार नहीं है। (मनुस्मुर्तिः अध्याय-2 श्लोक-66 और अध्याय-9 श्लोक-18)
मतलब साफ है कि स्त्रियां अपवित्र हैं और वे सदा अपवित्र होने के साथ शूद्र भी हैं। वही हमारे गोस्वामी तुलसी दास भी अपने एक श्लोक में कहते हैं ढोर, गंवार, शूद्र और नारी, ये सब ताड़न अधिकारी हैं, यानी नारी को ढोर की तरह मार सकते हैं। (मनुस्मुर्तिः अध्याय-8 श्लोक-299)
जब हम इन श्लोकों से बाहर आते हैं तो हमें दिखता है देश का हालिया सबरीबाला मंदिर विवाद। यहां महिलाओं को प्रवेश का अधिकार देश की शीर्ष संस्था माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने भी दिया मगर हमारा हठधर्मी समाज महिलाओं को उस मंदिर में प्रवेश करने नहीं दे रहा है।
अब इस सब चीज़ों के मूल्यांकन के बाद अगर हम वास्तव में मानव हैं तो हमें यह महसूस करना चाहिए है कि हम छठ पर्व के बहाने ही सही पर महिलाओं को जो सम्मान देते हैं उस सम्मान के दौरान जो शांति और आत्मीयता महसूस करते हैं वो शायद जीवन में पहली बार होता है।
तो क्यों ना हम उस अनुभूति को बार-बार प्राप्त करने के लिए अपने समाज की हर भूमिका में महिलाओं की बराबरी की वकालत करें और उन्हें मिला समानता का अधिकार उनसे ना छीनें।
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