कल्पना कीजिए एक ऐसी कहानी जिसमें एक मासूम बच्ची घर में अकेली रह जाए। बच्ची खुद ही खाना बनाए और फिर गैस को जलता हुआ छोड़ दे। खुद को फ्रिज में बंद कर ले। अकेली फेंसिंग पर चली आए। ऐसे कई हैरत से भरे लेकिन जागरूक करते दृश्यों से बनी है हालिया रिलीज़ ‘पीहू’।

पीहू की कहानी में ऐसे कई लम्हें हैं जिन्हें अक्सर लोग हल्के में लेते होंगे लेकिन वे क्यों बहुत पेंचीदा हो सकते हैं, पीहू देखकर समझ आता है। संवेदनाओं का गहरा अनुभव है पीहू का होना।
फिल्म की शुरुआत एक नन्ही सी मासूम बच्ची के साथ होती है। पीहू खुद को एक फ्रिज में बंद कर लेती है। मां बेहोश है। बच्ची पूरे घर में अकेले घूम रही है। देखने वाला कोई नहीं। ऐसे हालात के इर्दगिर्द घूमती लाजवाब फिल्म बनाई है विनोद कापड़ी ने।
बड़े घर में अकेले दम पर घूम रही नन्ही बच्ची पहले तो खुद को फ्रिज में बंद कर लेती है, फिर कभी गीज़र तो कभी दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामान ऑन कर देती है। कमाल देखिए कि नन्ही बच्ची अपने लिए खाना भी बनाने की कोशिश करती है। हर लम्हा हैरत में डालने वाली यह कहानी मॉडर्न मां-बाप की आंखें खोल देती है। नन्ही बच्ची पर लगातार मंडरा रहा खतरा हमें डर से भर देता है।

पीहू के साथ सबसे अच्छी बात मायरा विश्वकर्मा का होना है। मायरा ने हैरत से भरने वाला अभिनय किया है। मासूम बच्ची की मासूमियत दिलों को जीत लेती है। मायरा के ज़रिए इस किस्म का किरदार रचने के लिए विनोद कापड़ी की प्रशंसा की जानी चाहिए। मासूम अभिनय को देखकर कहा जा सकता है कि यह बहुत हिम्मत वाला कॉन्सेप्ट था। पीहू की संकल्पना बार-बार हैरत में डालती है। ऐसी फिल्में भारतीय सिनेमा की इज्ज़त बढाती हैं। कुल मिलाकर फिल्म पीहू हैरतअंगेज व दुर्लभ कथा कहती है।
नन्ही सी मायरा विश्वकर्मा की ‘पीहू’ हैरत में डाल देने वाली फिल्म है। मायरा की मासूमियत फिल्म की जान है। कमाल देखिए कि एक वक्त पर लगता है मानो खुद पीहू फिल्म को डायरेक्ट कर रही है। विनोद कापड़ी की इस सराहनीय फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यही है। फिल्म बांधे रखती एक अकेली बच्ची पूरी कहानी की जान है।

2 साल की पीहू पूरे घर में अकेली है। पूरा दिन अकेले बिताती है। किस तरह, यही बड़ा आकर्षण है। पीहू के साथ गुज़रा समय हमारे भीतर अनेक भावनाएं भर देता है। छोटी सी बच्ची दरअसल हमें भीतर झांकने को कहती है। मासूमों की दुनिया का अनदेखा सच सामने रख देती है।
पति-पत्नी के संबंधों पर उनके अहंकारों पर पहले भी फिल्में बन चुकी हैं लेकिन रिश्तों का टकराव किस हद तक जा सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं। विनोद कापड़ी की ‘पीहू’ से गुज़रती हुई आत्मा थर्रा जाती है। यकीन मानिए फिल्म खत्म होते ही आप कसम खाने पर मजबूर हो जाएंगे कि आप रिश्तों के दरम्यान कभी अहंकार नहीं लायेंगे, एक दूसरे का साथ जीवन भर निभाएंगे।

हर नज़रिए से ‘पीहू’ एक सराहनीय फिल्म है। ऐसी फिल्में केवल हिम्मत से बना करती हैं। फिल्म किसी एक तथ्य की तरफ इशारा नहीं करती। हां, लेकिन पेरेंटिंग के प्रति जागरूक संदेश बनकर उभरती है। हर लम्हा बच्ची की जान जोखिम में डालती कहानी झकझोर कर रख देती है, रोमांच से भर देती है ।
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