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“कौन है हिन्दू कौन नहीं है, तुम भी करोगे फतवे जारी”

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तुम बिलकुल हम जैसे निकले

अब तक कहां छिपे थे भाई

वो मूरखता, वो घामड़पन

जिसमें हमने सदी गंवाई

आखिर पहुंची द्वार तुम्‍हारे

अरे बधाई, बहुत बधाई।

हिंदुस्तान को पाकिस्तान के धार्मिक कट्टरपंथ एवं असहिष्णुता के मार्ग पर चलने से सचेत करने वाली पाकिस्तान की नारीवादी प्रगतिशील शायरा फहमीदा रियाज़ अब हमारे बीच नहीं रहीं। 1946 में हिंदुस्तान के मेरठ में जन्मी फहमीदा का इंतकाल लाहौर में लम्बी बीमारी के बाद 22 नवंबर को हुआ।

वैसे तो साहित्य का ना तो कोई मुल्क होता है ना ही सरहदें। वो नदियों, हवाओं और पंछियों की तरह बिना किसी पाबंदी के ज़मीन के एक हिस्से से दूसरे तक पहुंचकर वहां की हो जाती हैं, इसलिए दुनिया के महान साहित्कारों को किसी एक मुल्क तक महदूद करना किसी सागर की लहरों को बांधने का प्रयास लगता है। लहरें सभी दायरों को तोड़कर अपनी वेग से रास्ता बनाते हुए किनारों तक पहुंच ही जाती हैं। शेक्सपियर, ग़ालिब, फैज़ से सारी दुनिया इसलिए गुलज़ार नज़र आती है।

प्रगतिशील साहित्य की यह खासियत है, जब सामंतवाद का अंधेरा आवाम को जहालत की बेड़ियों में कैद करके कट्टरपंथियों की गुलाम बनाने की पुरज़ोर कवायद में रहता है, प्रगतिशील साहित्य जनांदोलन की प्रभा बनकर अंधेरे से आज़ाद सवेरे का मार्ग दिखाता है।

फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म “बोल की लब आज़ाद हैं तेरे”, “हम देखेंगे”, हबीब ज़ालिब की नज़्म “दस्तूर”, बॉब डिलन की “ब्लोइंग इन द विंड” कितनी दफे भारत के कॉलेजों में, मज़दूर एवं छात्र आंदोलनों में सड़कों पर गूंजकर निरंकुश सत्ता से हिसाब मांगती हैं। यह अल्फाज़ की ताकत ही है जिसके आगे ताज़ों तख्त झुक जाते हैं, हबीब ज़ालिब ने कभी लिखा था, “तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त-नशीं था, उसको भी अपने खुदा होने पर इतना ही यकीं था”।

फहमीदा रियाज़। फोटो सोर्स- फेसबुक

फहमीदा भी पाकिस्तान की उसी तरक्की पसंद तहरीक का नुमायां चेहरा थीं, जिसकी विराट विरासत फैज़ और ज़ालिब अपने पीछे छोड़ गए थे। मज़हबी पाकिस्तान में तरक्की पसंद ख्यालों का हिमायती होना ही एक मुकम्मल इंकलाबी बनने को काफी होता है। फहमीदा रियाज़ को अपने इंकलाबी विचारों की कीमत अदा करनी पड़ी, जब पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक के शासनकाल में उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चला (ठीक वैसे ही जैसे आज हिंदुस्तान में हमारे साहित्यकारों को कॉरपोरेट संचार तंत्र सत्ता से मतभेद प्रकट करने के लिए उन्हें अवॉर्ड वापसी गिरोह और देशद्रोही कहकर ज़लील करता है)।

उस दौरान उन्हें मजबूरन भागकर भारत मे शरण लेना पड़ा, जिसकी अनुमति अमृता प्रीतम के आग्रह करने पर इंदिरा गांधी ने दी थी। वो सात साल भारत में रहीं जब तक पाकिस्तान में सैन्य तानाशाही कायम थी। इस दौरान उन्होंने भारत में रहकर हिंदी भाषा का अध्ययन किया।

वो भारत के प्रगतिशील समाज से काफी मुतासिर थीं इसलिए जब उन्हें भारत में भी बहुसंख्यक मज़हबी कट्टरपंथ एक प्रगतिशील मुल्क को उसी ओर ढकेलता दिखा जिस गर्क में पाकिस्तान सदियों से पड़ा है, तो उन्होंने अपनी नज़्म में भारत को एक खूबसूरत पैगाम भेजा।

नज़्म का उनवान है ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’। इस नज़्म में उन्होंने धार्मिक अतिवाद के खौफनाक मंज़र जिससे पाकिस्तान एक मुद्दत से जूझ रहा है उसे हमारे समक्ष रखकर हमें आने वाले संकट से आगाह किया है।

नज़्म के हिस्से में वो कहती हैं, “कौन है हिन्दू कौन नहीं है तुम भी करोगे फतवे जारी”। इन बातों को हम शब्दशः सत्य होते देख रहे हैं। देश में संचार तंत्र मज़हबी माहौल बनाते चारों पहर नज़र आता है, जहां शिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार, विज्ञान जैसी अहम मुद्दे धर्म की भट्टी में जलकर दम तोड़ रहे हैं, वही तमाम राजनीतिक दल धर्म के लिबास ओढ़कर आवाम को भड़काने, बरगलाने और भटकने का काम बखूबी निभा रहे हैं।

मंदिर मस्जिद की सियासत में देश प्रगतिशील मूल्यों से भटककर अलगाव और टकराव की ओर कदम बढ़ा रहा है। ऐसे में फहमीदा रियाज़ का पैगाम हमारे सामने मज़हब के मलबे में दबे पाकिस्तान का परिदृश्य हमारे सामने रखता है।

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