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Channel: Culture-Vulture – Youth Ki Awaaz
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कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता परोसना कब बंद करेगा बॉलीवुड

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फिल्मों का सतहीपन कभी-कभी आपको बहुत परेशान करता होगा। मुझे भी करता है। मनोरंजन को एक नया आयाम देने की कोशिश हो रही है, मनोरंजन के नाम पर कंटेंट मैनीपुलेशन का चलन सा हो गया है।

माना कि टीवी के बनावटी ठहाकों ने बहुतों को खुश किया होगा लेकिन विचार करें कि बनावटी ठहाकों के लिए फिल्में बनाने का चलन टीवी के कॉमेडी नाइट्स एवं सर्कस से शक्ति नहीं पा रहा है? स्वाभाविक व्यंग्य स्वत: उत्पन्न हुआ करता है। हास्य-व्यंग्य दरअसल आरोपित ना हो तभी भाता है। बनावटी तालियों व ठहाकों के मकसद को लेकर बना सिनेमा सतही मनोरंजन से अधिक नहीं दे सकता है।

आज की हॉरर हिंदी फिल्मों एवं एडल्ट कॉमेडी फिल्मों का ओवर-मैनिपुलेटेड कंटेंट मनोरंजन को लम्बी उम्र नहीं दे सकता है। सिनेमा स्वयं अपने भविष्य का नुकसान करने वाला साबित ना हो इसके लिए निर्माता को नज़र एवं नज़रिया दोनों बदलने होंगे। उन्हें विचार करना होगा कि वर्तमान परिदृश्य में इस तरह की फिल्मों को स्वीकार करने के लिए क्या भारतीय समाज तैयार है?

हिंदी फिल्म ‘क्या कूल’ के संस्करण का पॉर्न वेबसाइटों पर प्रमोशन किया गया। सेंसर की ओर से इसे ‘ए’ सर्टिफिकेट के साथ पास किया गया। एडल्ट फिल्में धोखा देने के लिए प्रेरित करती हैं। हंसी मज़ाक में ही सही लेकिन एडल्ट कॉमेडी फिल्में धोखा देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही हैं। सिर्फ मनोरंजन के उद्देश्य को लेकर बन रही फिल्मों से परहेज़ नहीं, किन्तु यह ज़रूरी नहीं कि वो वाकई मनोरंजन करेंगी। मनोरंजन की परिभाषा को दरअसल निर्माता एवं बाज़ार अपने हिसाब से गढ़ रहे हैं।

क्या कूल है हम फिल्म का पोस्टर

एक ज़माना था जब बीआर इशारा की बोल्ड फिल्मों की धूम थी। उनकी फिल्म ‘चेतना’ ने एक साथ कई नई बहसों को जन्म दिया था। इसने फिल्मों में सेक्स-चित्रण, यौन-शुचिता और नैतिकता के साथ-साथ सेंसर बोर्ड पर भी सवाल उठाए। ‘चेतना’ में रेहाना सुल्तान ने एक कॉल गर्ल की भूमिका निभाई लेकिन उनका किरदार पारंपरिक वेश्याओं (सेक्स वर्कर) से नितांत अलग था।

हिंदी सिनेमा में यह चरित्र पहले भी आ चुके हैं। रेहाना देह को सक्षम मानती हैं, साथ ही दिमाग का भी इस्तेमाल करती हैं। इशारा की फिल्मों ने व्यस्कता को अधिकार की तरह रखा लेकिन इशारा की फिल्में सतही-नीरस एडल्ट फिल्मों से काफी आगे थीं। आप चाहे तो इशारा के काम को सी व डी ग्रेड में रख लें, किंतु उनके सिनेमा की गुणवत्ता कम नहीं कर सकते।

कंटेंट की वैचारिक धुरी के आधार पर यह फिल्में कूल थीं। आपकी फिल्मों की कहानी सतही आइडिया से उत्पन्न नहीं थी। आज की एडल्ट हिंदी फिल्मों की कथा में इशारा की तरह गंभीरता नहीं नज़र आती हैं। एडल्ट कॉमेडी फिल्मों से गंभीरता की उम्मीद करना बेईमानी सी बात होगी लेकिन इससे वो सामूहिक ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती।

रामसे की हॉरर फिल्मों में मौजूद सेक्सुअलिटी में सतहीपन-स्टीरियोटाइप में वैचारिकता की घोर कमी थी। विक्रम भट्ट की हॉरर फिल्मों में खुलापन तो ज़रूर है लेकिन रामसे की तुलना में दूसरे किस्म का है। आधुनिक ज़माने में ‘सेक्सुअलिटी’ एक दबा हुआ सा लेकिन अभिव्यक्त विषय बन गया है।

हेट स्टोरी के कई संस्करण आ गए हैं। दशकों पूर्व ‘कर्म’ में देविका रानी और हिमांशु राय के बीच सीन को लेकर काफी तर्क-वितर्क हुआ लेकिन सिनेमा में एडल्ट कंटेंट नहीं रुका। शॉर्ट टाइम कलाकारों को लेकर वो फिल्में बनने लगीं, फिर एडल्ट कॉमेडी फिल्मों की धारा विकसित की गई। हंसी मज़ाक को व्यस्क एंगल देकर एडल्ट कंटेंट जारी रहा।

कभी अनजान कलाकारों को लेकर रिलीज़ हुई एडल्ट फिल्मों में आज जाने-पहचाने कलाकार भी काम करते देखें जा सकते हैं। अब की ‘एडल्ट’ फिल्में सतहीपन-स्टीरियोटाइप को चुनौती देने के नज़रिए से बन रही हैं लेकिन सतहीपन से मुक्ति की राह इतनी सीधी भी नहीं हैं। यह दरअसल विचारधारा के संकट का दौर है।

आज भोजपुरी सिनेमा इस बात को सम्मान मान रहा कि उसने सी व डी ग्रेड की फिल्मों अथवा मॉर्निंग शो की फिल्मों को खत्म कर दिया है लेकिन क्या वो नहीं भूल रहे हैं कि सफाई अभियान में गंदगी की ओर झुक गए? उसका घोर रूप से हिस्सा बन गए?

भोजपुरी सिनेमा का खुलापन शब्दों से होकर फिल्मांकन-संगीत व दृश्यों तक पहुंच गया है। कहानियों से हटकर चर्चा करें तो वहां आ रहे आईटम गानों में सेक्सुअलिटी की बड़ी संकीर्ण परिभाषा नज़र आती है। बड़े शहरों में अब सुबह के शो वाली सी-डी ग्रेड हिंदी फिल्में नहीं नज़र आती हैं।

छोटे शहरों-कसबों व गांवों के सिनेमाघरों में टाईमपास के लिए यह फिल्में अब भी दिखाई जाती हैं। इनके निर्माताओं को नामकरण के लिए पुरस्कार से नवाज़ा जाना चाहिए लेकिन फिल्मों को किस श्रेणी में रखा जाए, इस पर आप भी विचार करें। कांति शाह की फिल्मों को आप किसी कतार में रखते हैं? व्यस्क फिल्मों के लेखक भी बड़े कलाकार किस्म के हैं। एडल्ट कहानी-पटकथा लिखना जोखिम वाला काम होता है, क्या वो अपनी सृजनात्मक क्षमताओं को व्यर्थ नहीं कर रहे हैं?

कहा जाता है कि इस किस्म की फिल्मों से कला व सार्थक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्या इनकी चिंता से जन्म लेने वाली मुख्यधारा व्यस्क अथवा एडल्ट कॉमेडी फिल्मों से भी कामना नहीं करें। हॉलीवुड की एडल्ट फिल्मों में भी सतहीपन होता है। वहां की ए ग्रेड सिनेमा में खुलेपन का असर देश में बन रही फिल्मों पर हुआ, यहां के सिनेमा में खुलापन परोसने वालों का तर्क देखिए। एडल्ट फिल्मों के दर्शक घोर अवसाद की स्थिति में होते हैं। मन व काया पर कामुकता का विस्फोट करने वाली फिल्में आदमी का काफी नुकसान करती हैं।

मानवीय रिश्तों पर फिल्में बनाने वाले फिल्मकार/निर्माता भी कंटेंट में खुलेपन को बड़ी चतुराई से डाल रहे हैं। कुछ यूं हो रहा मानो वो नहीं किया तो फिल्म चलने वाली नहीं। इधर देखने में आ रहा कि किरदार का गाली अथवा अपशब्द बोलना लाज़िमी है। साहसी फिल्मों के सारथी लोग सेक्सुअलिटी को व्यक्त करना साहस मानते हैं।

गालियों व कामुक प्रसंगों का प्रसार समाज में उन्माद की स्थिति नहीं बना रहा? अपराध व सेक्स के मेलजोल से बनी कहानियों का चलन सिनेमा में काफी समय से है। इस मामले में किरदार व कहानियों में बदलाव तो हुआ लेकिन प्रेरणा टाईपकास्ट रही। विज्ञान व आधुनिकता के ज़माने में भूत-पिशाच की हॉरर फिल्में बननी चाहिए थी?

ज़्यादातर स्त्री आत्माएं कामुक व बलाजान सुंदरी क्यों बनाई जा रही हैं? जिस कलाकारी व खुलेपन से आत्माओं का रूप-रंग गढ़ा जा रहा, उसे देखकर मालूम पड़ता है कि फिल्मकार ने उन्हें देखा है। रामसे व कांति शाह की हॉरर फिल्मों में भूत-पिशाच अमूमन कुरूप व डरावने किस्म के रहे, इनके रूप-रंग की एक नयी परिभाषा हिंदी की मुख्यधारा फिल्मों ने रची।

एडल्ट सर्टीफीकेट पर रिलीज़ हुई फिल्मों में मौजूद खुलापन पारिवारिक फिल्मों को भी मायाजाल में खींच लाया। आज के ज़माने से पहले ‘कॉमेडी’ का मतलब केवल हास्य-व्यंग्य हुआ करता था। कॉमेडी में सेक्सुअलिटी का पुट देकर एक नए किस्म के हास्य-व्यंग्य (फूहड़ता) को रचा गया। कहना होगा कि इस किस्म के प्रयोग मूल विधाओं को बर्बाद कर रहे हैं।

अनेक बार काफी वैचारिक कामों को अनावश्यक आइटम गानों द्वारा खराब होते देखा है। हिंदी में अब बन रही व्यस्क फिल्मों को शायद इन हिट गानों से भी प्रोत्साहन मिला होगा। सिनेमा में सृजनात्मक संभावनाओं की अपार क्षमता हुआ करती है, एक मामूली से कहे जाने वाले प्रसंग को कहानी में ढलते देखा है। अभिव्यक्त करने के पचासों तरीके फिल्मकार आज़माया करते हैं। सृजनात्मक महत्वकांक्षाओं ने फिल्मकारों को अनावश्यक चीज़ों तक पहुंचाया। क्या वो आवश्यक चीज़ों तक जा सकते थे? सिनेमा को गैर-ज़रूरी चीज़ों से बचाए रखने से ही सतहीपन से मुक्ति मिलेगी।

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