फिल्म का एक दृश्य, जिसमें हीरोइन (सोनम कपूर) अपने प्रेम की जटिल अंतर्कथा को अपने दोस्त (राजकुमार राव) से साझा कर रही है। समाज के लिए उसका प्रेम असामान्य है और इस असामान्यता की वजह से उसका और उसकी प्रेमिका का मिलन काफी मुश्किल है।
स्क्रीन पर प्रेम जटिलताओं की एक कहानी चल रही है, जिसे देखकर आपका भावुक होना लाज़मी है लेकिन हॉल में इसपर कुछ विचित्र प्रतिक्रिया देखने को मिली, इस प्रेम ने लोगों को भावुक नहीं किया उलटे, यह प्रेम परिदृश्य लोगों को एक कॉमेडी प्लॉट से अधिक और कुछ नहीं लगा और लोग ठहाके मार-मार कर हंस रहे थे।
वजह साफ थी, इस प्रेम कहानी में मुख्य पात्र एक लड़का-लड़की नहीं बल्कि दो लड़कियां थीं, जिनका आपसी रिश्ता समाज के लिए शायद आज भी एक मज़ाक भर है। इस बात का जीता जागता सुबूत मुझे उस हॉल (V3S लक्ष्मीनगर) में देखने को मिल गया।

“एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा” फिल्म पर ऑडियंस की यह प्रतिक्रिया देखकर मुझे बहुत निराशा हुई। हॉल में बैठे शायद कुछ ही लोगों ने इस संवेदनशील मुद्दे को आत्मसात किया होगा।
इस फिल्म का पॉज़िटीव रिव्यू पढ़कर सुकून सा मिला था, लगा था कि बॉलीवुड के इस बदलाव के साथ हमारा समाज भी खड़ा है। इस थीम पर बॉलीवुड में फिल्म का निर्माण सराहनीय कदम ही माना जाएगा, क्योंकि गे-लेस्बियन कपल बॉलीवुड का हिस्सा तो रहे हैं लेकिन अक्सर मज़ाक के पात्र के रूप में। फिल्मों में कॉमेडी का एंगल दिखाने के लिए इन कपल्स का इस्तेमाल किया जाता रहा है।
आज भले ही इस बदलाव के साथ समाज का एक हिस्सा खड़ा है फिर भी एक बड़ा वर्ग आज भी इस प्रेम को एक संकीर्ण परिधि में बांधकर ही देखता है। और, अगर कोई इस परिधि के बाहर जाने का सार्वजनिक तौर पर कोशिश भी करे तो समाज बौखला जाता है या फिर उसे एक मज़ाक का पात्र बना देता है।

फिल्म में सोनम कपूर और उसकी प्रेमिका को घरवालों की रज़ामंदी दिलवाने के लिए राजकुमार राव एक नाटक का सहारा लेता है। यह नाटक सोनम कपूर के पिता की कपंनी के कपड़ों के प्रमोशन के रूप में किया जाना तय होता है। लेकिन नाटक का प्लॉट सुनते ही घर वालों की नाराज़गी सामने आती है और इस प्लॉट पर नाटक का विरोध होता है।
फिर इसे एक कॉमेडी नाटक के रूप में सहमति मिलती है कि ऑडियंस के लिए यह एक कॉमेडी होगी क्योंकि रियल लाइफ में ऐसा थोड़े ही होता है। दुख की बात है कि हमारे दर्शकों ने भी इस संवेदनशील मुद्दे को एक कॉमेडी भर ही स्वीकार किया।
फिल्म में सोनम कपूर राजकुमार राव को कहती है, “तुम इस नाटक को छोटे-छोटे शहरों में लेकर जाना क्योंकि वहां भी कई स्वीटी होगी जिसकी मदद हो सके”। मुझे लगता है कि छोटे शहरों में ही नहीं महानगरों में भी ऐसी जागरूकता की अभी बेहद ज़रूरत है, क्योंकि यह मानसिकता छोटे-बड़े शहरों की नहीं बल्कि संकीर्ण सोच की है।
जहां तक बात रही एक फिल्म के रूप में इसकी सफलता की तो एक्टिंग, मनोरंजन और विषय हर रूप में फिल्म बेहतरीन है। हां, इसे 100% परफेक्ट फिल्म भी नहीं कहा जा सकता है लेकिन अगर कोई फिल्म किसी सामाजिक रूढ़िवादिता के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करे तो कुछ कमियों को नज़रअंदाज़ करने की ड्यूटी हम दर्शकों की भी होती है। बेहतर बात यह है कि फिल्म ने ना सिर्फ समलैंगिक मुद्दे को उठाया है बल्कि अंतरधार्मिक विवाह के पहलू को भी छुआ है।
फिल्म के मुख्य किरदार अनिल कपूर, जूही चावला, सोनम कपूर, राजकुमार राव के अलावा सपोर्टिंग कलाकारों का तानाबाना फिल्म को बांधे रखने में पूरी भूमिका अदा करता है।
अंत में बस इतना कहूंगी, फिल्म देखने ज़रूर जाइए, क्योंकि यह फिल्म आपको हंसने के भी पूरे मौके देगी और आपको प्रेम को रूढ़िबद्ध सीमाओं से परे एक अन्य रिश्ते की स्वीकृति पर भी सोचने को मजबूर करेगी।
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