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‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’: फिल्म ने समलैंगिकता की गहराई को समझा नहीं

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प्यार क्या है? सिबलिंग्स का प्यार, माँ का प्यार, दोस्ती में प्यार, रोमांस वाला प्यार और इंडिया में होता है बॉलीवुड वाला प्यार। इस बॉलीवुड वाले प्यार में एक लड़का होता है और एक लड़की होती है। दोनों प्यार करते हैं और इनकी शादी दिखाकर अंत में सुखांत में फिल्म समाप्त हो जाती है।

बॉलीवुड के मानक संस्करणों से अलग यानी लड़का-लड़की के प्यार से अलग कुछ नया दिखाने के नाम पर बनने वाले सिनेमा में नया नाम है, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा?’ अब बताइए फिल्म देखकर कैसा लगा?

Ek Ladki Ko Dekha To Aisa Laga Film Review
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा का दृश्य। फोटो सोर्स- फेसबुक

भई! बॉलीवुड कहता है लड़का-लड़की दोस्त नहीं हो सकते हैं, तो दो लड़कियों के प्यार को दिखाना क्या टास्क नहीं होगा? बेशक होगा, होना ही चाहिए। फिल्म शुरू हुई तो मैं सोच रही थी, “यार सोनम थकी और उदास क्यों लग रही है?” मुझे सच में आयडिया नहीं था कि फिल्म में उन्हें समलैंगिक दिखाया गया है। फिर क्लिक हुआ, “अच्छा इसलिए”।

समलैंगिक लोगों की कोई विशेष बॉडी लैंग्वेज नहीं होती, ना ही यह ज़रूरी है कि समलैंगिक लड़के औरतों की तरह व्यवहार करते हों, ना ही ज़रूरी है, समलैंगिक लड़कियां लड़कों जैसी दिखें, ना ही उनके अंदर कॉन्फिडेंस कम होता है।

समलैंगिक लोग बिल्कुल साधारण होते हैं। ना तो यह कोई शर्मिंदगी का विषय है, ना ही यह कोई अलौकिक चीज़ है। खैर, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ में मुख्य पात्र को समाज में स्वीकृति दिलवाने के लिए जद्दोजहद करता है एक लड़का जो इस लड़की को प्यार करता है।

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा का दृश्य

वाह! कितना आसान है, बस एक सर्टिफिकेट समाज का मिल जाए, सब आसान। असल में यह दो लोगों का एक बहुत पर्सनल विषय है। यह फिल्म इस विषय की गहराई बालिश्त भर भी नहीं नाप पाई। शादी, हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबे और कहीं-कहीं समाज में होते जेंडर डिस्क्रिमिनेशन मसलन, आदमी का किचन में होना घर की औरतों को खटकना, भाई नाम के जीव का बहन के लिए ओवर पॉजेसिव होना दिखाया गया है।

फिल्म का बैकग्राउंड एक छोटा सा शहर है, जहां इतना एक्सपोज़र नहीं होना चाहिए कि 23-24 साल पहले लोग खासकर बच्चे एक चित्र जिसमें दूल्हा-दुल्हन की जगह दो दुल्हने बनी हो देखकर समझ जाएं कि किसी की सेक्शुअल आइडेंटिटी क्या है?

फिल्म में सेक्शुअल आइडेंटिटी डिस्क्लोज़ कैसे हुई दिखाने में भी बहुत लापरवाही बरती गई है। यह अस्तित्व की ऐसी लड़ाई है जिसे सामने आने में बहुत पेंचीदगी होती है। खासकर भारत में, वह भी दो दशक पहले के भारत में इसे समझना नामुमकिन सा होना चाहिए।

गौरतलब यह भी है कि क्या सेक्सुअलिटी सिर्फ शादी है? क्या यह लोग बस सपनों के पार्टनर के नाम पर भांप लेते हैं कि मैं क्या हूं? फिल्म में बताया गया है कि जब भी ‘सपनों के राजकुमार’ की बात होती है तब हमेशा लड़की को कोई लड़की ही दिखाई देती है। क्या यह इतना आसान होता है? समलैंगिकता का मतलब सिर्फ सह-वास नहीं है। यह हमारी पहचान है, पहचान को समझना और इसे स्क्रीन पर दिखा पाना इतना आसान नहीं समझना चाहिए, जितना फिल्म में समझा गया है।

फिल्म का मुख्य विचार फिल्म में कहीं हावी नहीं था। इस विषय पर बनी ना जाने कितनी फिल्में हैं, जिनको देखकर अंततः आप बहुत संवेदनशील हो जाते हैं। जेंडर आइडेंटिटी की कोई मानक परिभाषा नहीं है, इसके आकर्षण बहुत लचीले और बहुआयामी होते हैं।

आपको नए विषय पर फिल्म बनानी थी, समलैंगिकता को परोस दिया। उसका महिमामंडन कर दिया या चाहा कि हम ऐसे दिखाएं कि जैसे यह कोई बड़ी बीमारी है, जिसके बारे में पता चलते ही सब कष्ट में आ जाएं। जबकि यह एक सहज बात होनी चाहिए।

Ek Ladki Ko Dekha To Aisa Laga Film Review
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा का पोस्टर। फोटो सोर्स- फेसबुक

इससे पहले भारतीय सिनेमा में बाई-सेक्सुअलिटी को मज़ाक के तौर पर परोसा जाता रहा है। कई फिल्मों में एक कॉमेडियन जो बाई-सेक्सुअलिटी होता था, याद है? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दुनियाभर में 71 तरह के जेंडर या सेक्शुअल आइडेंटिटी पाई जाती हैं।
परन्तु भारत में इतनी विभिन्नताओं से परे, दो लिंगो का बोझ ही नहीं झेला जा रहा है। आपको किसी अस्तित्व को परिभाषित क्यों करना है?
फिल्म में दिखाया जाए कि कैसे यह लोग खुद से ही संघर्ष करते हैं, जबकि यह संघर्ष सिरे से नदारद है फिल्म में। यह इतना भी आसान नहीं है कि दो ड्रॉइंग बनाकर आप को समझ आ जाए, ना ही यह शादी और सहवास का नाम है।

‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ एक टिपिकल बॉलीवुड सिनेमा है जिसमें समलैंगिकता को ऐड करके इसे कुछ अलग बनाने की कोशिश की गई है।

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नोट- मनीषा YKA की जनवरी-मार्च 2019 बैच की इंर्टन हैं।

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