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“पुरानी किताबों को संभालकर रखना किसी दास्तां को ज़िन्दा रखने जैसा है”

किताबें यूं तो बोल नहीं सकती हैं लेकिन शब्द के साथ वे भी बोल पड़ती हैं। वे चीख-चीखकर बोलती हैं, प्यार से बोलती हैं, रह रहकर बोलती हैं। यह आदत भी ठीक नहीं थी कि किसी पेज का पता याद रखना होता तो कभी बीच से तो कभी हाशिए पर मोड़ दिया करता था। शायद बहुत से पाठक ऐसा ही करते हों। याद है कि बीती बार कुछ ऐसा करके कई दिनों तक भूल गया। किताब अभी और पढ़ी जानी हैं, एक कहानी उसी मोड़ पर खड़ी रही, जहां छोड़कर आया...

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