“मैं अपने दोनों पैरों में पांच-पांच किलो के घुंघरू बांधता था और गले में ढोलक लटकाकर जब मंच पर बजाना शुरू करता तो शरीर का रोम-रोम खिल उठता था। अब ऐसी पुरानी यादों को सोच-सोचकर ज़िंदगी बीत रही है। कानों में पब्लिक की सीटियां गूंजती हैं। उनकी फरमाइशों को मन ही मन सुन-सुनकर नगाड़े बज उठते हैं लेकिन यह पूरा साल कोरोना की वजह से बेकार चला गया। मेले और यात्राएं बंद हैं, तो अब हर दिन रोज़ी-रोटी का संकट ह...
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