सन् 1988 में रिलीज़ हुई ‘कयामत से कयामत तक’ समकालीन हिन्दी सिनेमा में प्रस्थान बिंदु को प्रकट करती है। उस समय की मुख्यधारा सिनेमा हिंसात्मक फिल्मों एवं कोलाहल धुनों के साए में जी रहा था। माहौल कुछ यूं था जिसमें हिन्दी फिल्मों की सामान्य दुनिया अस्त-व्यस्त की स्थिति में आ गई और सिनेमाघरों से दर्शकों का रिश्ता छूट सा गया था। फिल्मों की कथावस्तु व प्रस्तुति ने दर्शकों को सिनेमाघर से विमुख सा कर दिय...
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