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अंकुर से लेकर वेलडन अब्बा तक : एक नज़र श्याम बेनेगल के सफ़र पर

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सिद्धार्थ भट्ट:

आज के समय में जब मार-धाड़, नाच-गाने और औसत अभिनय को फिल्म के नाम पर परोस दिया जाता है, ऐसे में कुछ फ़िल्मकार ऐसे भी हैं जिनकी अर्थपूर्ण और संवेदनशील फ़िल्में बनाने की कोशिशें जारी हैं। अभी हाल ही में आई नागेश कुक्क्नुर की फिल्म “धनक” इसका अच्छा उदाहरण है। स्वरा भास्कर अभिनीत “निल्ल बटे सन्नाटा” भी इसी तरह की एक फिल्म है। मसाला फिल्म बनाने वालों की भीड़ में अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धुलिया, मनीष झा जैसे कुछ ऐसे भी निर्देशक हैं जिन्होंने अर्थपूर्ण और कलात्मक सिनेमा की विरासत को बचाकर रखा है। हिन्दी सिनेमा में एक लम्बे समय तक फिल्मों को मसाला या कमर्शियल फिल्मों और आर्ट फिल्मों के श्रेणी में बाँट कर रखा गया। लेकिन आज यह स्थिति काफी बदल चुकी है, जब कमर्शियल और आर्ट फिल्मों के बीच की दूरी घट रही है। आज अगर किसी सामजिक मुद्दे पर कोई फिल्म बनती है तो उसे केवल अवार्ड्स के लिए नहीं बनाया जाता।

लेकिन दो दशक पहले यानी कि 90 के दशक में स्थिति ऐसी नहीं थी, यह वह समय था जब 50 के दशक में शुरू हुआ सामानांतर या पैरेलल सिनेमा पाइरेसी, फिल्म निर्माण में बढती लागत, नेशनल फिल्म डेवेलपमेंट कॉर्पोरशन ऑफ़ इंडिया की इन फिल्मों के वितरण की कमजोर नीति के कारण संघर्ष कर रहा था। इस दौरान भी कुछ बेहतरीन फ़िल्में आयी जो मेरी राय में भारतीय सिनेमा का सबसे बुरा दौर था।

श्याम बेनेगल जो तब तक समानांतर सिनेमा में एक बड़ा नाम बन चुके थे, इस दौर में उनकी “सूरज का सातवां घोडा”, “मम्मों”, “सरदारी बेगम”, “मेकिंग ऑफ़ महात्मा” और “समर” जैसी फ़िल्में आई। ये सभी फिल्में अलग-अलग मुद्दों पर बनाई गई थी, जहाँ “सूरज का सातवाँ घोड़ा” पित्रसत्ता पर सवाल खड़े करती है, वहीं “मम्मो” एक बुजुर्ग महिला की व्यवस्था से लड़ाई की कहानी है। इसी तरह “सरदारी बेगम”, समाज से विद्रोह कर संगीत सीखने वाली एक महिला की कहानी है जिसे समाज अलग-थलग कर देता है तो “समर” जाति प्रथा के मुद्दे पर बात करती है।

जब संवेदनशील और अर्थपूर्ण सिनेमा अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा था उस दौर में आई बेनेगल की फिल्मों ने सिने प्रेमियों के साथ-साथ उनकी पीढ़ी के और युवा फिल्मकारों को लगातार प्रेरित किया। ऐसा नहीं था कि 90 के दशक में केवल श्याम बेनेगल ही इस तरह की अर्थपूर्ण फ़िल्में बना रहे थे। उनके अलावा इस दौरान शुभांकर घोष की “वो छोकरी”, गोविन्द निहलानी की “हज़ार चौरासी की माँ”, विनय शुक्ला की “गॉड मदर”, और महेश भट्ट निर्देशित “ज़ख्म” जैसी उम्दा फ़िल्में भी आई। 21वीं सदी की शुरुआत (2001) में आई श्याम बेनेगल की फिल्म “जुबैदा” को एक तरह से आज की कलात्मक फिल्म शैली की शुरुवात भी कहा जा सकता है, जब मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा के बड़े नाम जैसे करिश्मा कपूर और ए. आर. रहमान ने भी बेनेगल के साथ काम किया।

सत्तर के दशक की शुरुआत में 1973 में आई फिल्म “अंकुर” से उन्होंने हिन्दी फिल्म निर्देशन की शुरुवात की, इसके बाद आई फिल्मों “निशांत”, “मंथन” और “भूमिका” के बाद बेनेगल हिन्दी पैरेलल सिनेमा में एक जाना पहचान नाम बन चुके थे। 80 के दशक में उनकी “कलयुग”, “त्रिकाल” और “मंडी” जैसी फ़िल्में आई। बेनेगल की रचनात्मकता केवल सिनेमा तक ही सीमित नहीं थी। सन 1988 में जवाहर लाल नेहरु की किताब “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” पर आधारित “भारत एक खोज” और 1994 में “अमरावती की कथाएँ” उनके द्वारा निर्देशित टेलीविजन धारावाहिक हैं। अगर आप भी मेरी ही तरह 90 के दशक में बड़े हो रहे थे तो आपको ये जरुर याद होंगे।

मेरी निजी राय में बेनेगल का फिल्म की मूल कहानी के साथ-साथ हर दृश्य में एक कहानी कह जाने की क्षमता उन्हें एक ख़ास पहचान देती है। उन्होंने हर समय में उस दौर की समस्याओं और मुद्दों को अपनी फिल्मों में उठाया। नयी पीढ़ी के दर्शकों के लिए “वेलकम टू सज्जनपुर” और “वेलडन अब्बा” इसके काफी अच्छे उदाहरण भी हैं। उनकी फिल्मों के सभी किरदार ऐसे हैं जो हमें चौक, चौराहे, गली, मुहल्लों में बड़ी आसानी से दिख जाते हैं। लेकिन बेनेगल की सिनेमाई क्षमता “द मेकिंग और महात्मा” और “बोस द फॉरगॉटन हीरो” के साथ एक अलग आयाम को भी छूती है। यह बेनेगल की सिनेमा और समाज की समझ ही है, जो उनकी फिल्मों को समय से परे एक क्लासिक सिनेमा का रूप देती हैं।

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