फिल्म एक ऐसा सबजेक्ट है जिसके बारे में हम आराम-कुर्सी पर बैठ चाय की चुस्कियों से लेकर ऑफिस की टेबल पर डेस्कटॉप पर काम करना हो या सोशल मीडिया के पन्नों तक यानी कि कहीं भी और कभी भी बात कर सकते हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि फिल्मों के बारे में बात करना हमारे देश के राष्ट्रीय टाइम-पास बनने के सबसे बड़े दावेदारों में से एक है। इसलिए आज यहीं से बात शुरू करते हैं और फिल्मों के ही एक पहलू को किसी अलग नज़रिए से समझने की कोशिश भी करते हैं।
तो बात शुरू करते हैं उन लोगों से जो कि भारतीय फिल्मों का अभिन्न अंग रहे हैं, खलनायक! यानी विलेन। वैसे तो बॉलीवुड की धरती ने इस क्षेत्र में कई सपूत जन्में है परन्तु हम बात उस शख्स से शुरू करते हैं जिनका इस क्षेत्र में अविस्मर्णीय काम रहा है, नाम है- ललिता पवार! ललिता पवार ने एक कांपती आँख से और अपनी कर्कश आवाज़ के इस्तेमाल से जो किरदार निभाए हैं, उनकी सफलता इस बात से ही आंकी जा सकती है कि शायद ही कोई शख्स हो जिसने उन किरदारों से उस वक़्त नफरत ना की हो। यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि ललिता पवार ने एक नायिका के तौर पर काम करना शुरू किया था परन्तु एक हादसे में उनकी आँख में डिसएबिलिटी आ गयी और वो नायिका से खलनायिका में बदल गयी।
अगर फिल्मों के परदे से टी.वी. की ओर मुड़ा जाए तो बेहतरीन खलनायकों की सूची में जो नाम सबसे ऊपर आता है, जिसके चित्रण से ही गुस्सा और घिन दोनों ही आती है तो वो ‘शकुनी’ से बेहतर और क्या होगा? कई लोगों का मानना है कि अगर शकुनी को लंगड़ा (वो शब्दावली जो समाज में अक्सर इस्तेमाल होती है, बेहतर शब्द है person with loco-motor disability) ना दिखाया जाता तो किरदार उतना पुख्ता तरीके से परदे पर कभी ना आता। एक आँख वाले खलनायक भी भारतीय फिल्म उद्योग में काफी आम तौर पर पाए जा सकते हैं।
इसी सिक्के का दूसरा पहलू दिखाने के लिए उदाहरण दिया जाए तो नायक फ़िल्म के उस सीन की बात की जाएगी, जब एक ‘दिव्यांग’ किशोर आ के रोते हुए कहता है, ‘हमारा देश भी मेरी तरह लंगड़ा हो गया है, आप उसे अपने पैर पे खड़ा कर दीजिये।’ 80 के दशक में नायक की अंधी (सही शब्द visually impaired या नेत्रहीन है) माँ और उसका लाचार होना, नायक को महानायक बना देता था।
एक और पहलू देखें तो हकलाना, तुतलाना, स को त्स बोलना (कुछ साल पहले आई 3 इडियट्स फिल्म में बमन इरानी का किरदार), मानसिक अपंगता (बौद्धिक विकलांगता या intelectual impairment) इत्यादि जैसी डिसएबिलिटी का मज़ाक भी कई बार और कई तरीकों से फिल्मों में उड़ाया जाता है।
ऊपर दिए गए उदाहरण, जिनकी गिनती रोके नहीं रूकती यह स्पष्ट कर देते हैं कि हमारी फिल्मों में डिसेबल्ड लोगों को अधिकतर एक लाचार की भूमिका में या एक खलनायक की भूमिका में या फिर हँसी उड़ाने के लिए दिखाया गया है। अब सवाल ये है, कि क्या इस चित्रण का हमारी या आपकी ज़िन्दगी पर फ़र्क पड़ता है? जब एक फिल्म के आने के बाद लोग गुलाब लेकर विरोध करना शुरू कर दें या फिर विरोध प्रकट करने के लिए कैंडल मार्च करना शुरू दें, तो आपको नहीं लगता कि यह चित्रण जो जाने कब से चला आ रहा है समाज पर प्रभाव डालता होगा?
मैं अपने अनुभवों से कहूँ तो कहीं ना कहीं इस चित्रण के कारण, मैं बौद्धिक विकलांग लोगों से बातचीत करने में असहज महसूस करता था और डरता भी था। पहली बार जब मैं एक ऐसे साथी से अचानक से मिल गया था, जिसकी एक आँख नहीं थी तो जाने क्यूँ मैं डर गया था जबकि यह पूरी तरह से एक नॉर्मल चीज़ है? तो हम कब डिसएबिलिटी को एक नॉर्मल चीज़ की तरह स्वीकार करेंगे?
ऐसा नहीं है कि फिल्में सिर्फ इसी तरह की आई हैं जिनकी अभी तक बात हुई, कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जिनमें एक डिसेबल्ड इंसान को एक नॉर्मल इंसान की तरह ही दिखाया गया है। इनमें ‘कोशिश’, ‘दोस्ती’ और हाल ही में बनी ‘मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ’ जैसी कुछ बेहतरीन फ़िल्में हैं। मगर सवाल यह है कि आज तक ऐसी बनी फिल्में उँगलियों की गिनती ख़त्म होने से पहले क्यूँ ख़त्म हो जाती हैं? हममें से कितने लोगों ने इन फिल्मों को देखा और उनमें से भी कितनों ने एक अलग नज़रिए से इन्हें देखा। इन फिल्मों के किरदारों को बिना तरस खाए एक आम किरदार की तरह अपनाया? कब हम समाज के कुछ दृष्टिकोणों के खांचों से विकलांगता को बाहर निकाल पायेंगे? और आखिरकार हम कब विकलांगता को एक नॉर्मल और आम चीज़ की तरह स्वीकार कर पाएँगे?
The post फ़िल्में और डिसएबिलिटी- बॉलीवुड कब होगा इस मुद्दे पर संवेदनशील appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.