जनवरी में पठानकोट पर हुए आतंकी हमले की एनडीटीवी इंडिया की खबर को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस चैनल पर एक दिन का बैन लगाने का फैसला लिया है। इस फैसले की ना केवल मीडिया जगत में बल्कि बुद्धिजीवी वर्ग के साथ-साथ आम भारतीय नागरिकों द्वारा भी कड़ी आलोचना की जा रही है। फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइटस पर लोग अपोज़ बैन ऑन एनडीटीव की मुहिम चला रहे हैं, जिससे कई लोग जुड़ गए हैं। एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम के एंकर रवीश कुमार ने माइम एक्टर्स के साथ मिलकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बड़े ही निराले अंदाज़ में शो पेश किया जिसे खूब देखा और पसंद किया जा रहा है। एडिटर्स गिल्ड ने तो यहां तक कह दिया कि-एनडीटीवी पर बैन इमरजेंसी के दिनों की याद दिलाता है। सूचना प्रसारण मंत्रालय का यह फैसला मीडिया की स्वतंत्रता पर कुठाराघात है।
गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने बयान दिया कि “हमें पुलिस और प्रशासन पर संदेह और सवाल-जवाब करना छोड़ देना चाहिए।“ इस पर भी रवीश कुमार ने अपने शो में चुटकी ली और कहा “आपको सवालों से गुस्सा क्यों आता है ऑथोरिटी जी, अगर हम सवाल करना बंद नहीं करेंगे तो आप क्या करेंगे। एक लोकतांत्रिक देश में प्रशासन से सवाल जवाब करने का अधिकार हर नागरिक को है। अगर हम तीखे सवाल उठाएंगे तो क्या आप हमें नोटिस भेज-भेज कर परेशान करेंगे अथॉरिटी जी, हमारे मुंह पर ताला लगा देंगे। हम तो एंकर हैं, मुंह पर ताला लगा देंगे तो हम बोलेंगे कैसे?”
यहां सवाल महज़ एनडीटीवी पर लगे बैन का नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है, जो देश के हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। अगर प्रशासन जवाबदेही नहीं लेता तो उससे सवाल-जवाब करना हमारा अधिकार है। अगर देश की प्रशासनिक प्रणाली ढीक ढंग से काम कर रही होती तो उसे सवालों के कटघरे में खड़ा करने की ज़रुरत नहीं होती। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया है और ये मीडिया की नैतिक जवाबदारी है कि वो लोकतंत्र के प्रहरी की अपनी भूमिका को निष्पक्ष होकर बेबाकी से निभाये और अगर ऐसा करने से कोई उसे रोकता है तो ये मीडिया की स्वतंत्रता का हनन है। राष्ट्र हित के नाम पर आप मनमानी नहीं कर सकते।
भारत में मीडिया पर सेंसरशिप कोई कोई नयी बात नहीं है, ये अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही है। पहले अंग्रेजों ने लाइसेंसिंग, प्रीसेंसरशिप, गैगिंग एक्ट और वर्नाकुलर प्रेस जैसे एक्ट के ज़रिये प्रेस पर पाबन्दी लगाने की ढेरों कोशिशें की। मगर मीडिया के माध्यम से उठती जनता के आक्रोश की आवाज़ को वो दबा न सके। फिर इमरजेंसी में भी मीडिया पर सेंसरशिप लगाई गयी, जिसका खामियाज़ा उस वक़्त सत्ता में काबिज पार्टी को सत्ता गवां कर चुकाना पड़ा। मौजूदा सरकार को इससे सबक लेने की ज़रुरत है।
जिस लोकतांत्रिक देश में सवाल पूछने की आज़ादी न हो, अपने विचार प्रकट करने की आज़ादी न हो, किसी से असहमत होने की आज़ादी न हो। जहां असहिष्णुता पर अपनी बात रखने वालों को देशद्रोही कहा जाता हो और पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दी जाती हो, तो उस देश के लोकतांत्रिक होने पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा हो जाता है। कईयों का मानना है की पठानकोट की घटना के बहाने सरकार की मंशा मीडिया को ये नसीहत देना है कि वो अपने तेवर टोन डाउन कर ले और सरकार के सुर में सुर मिलाकर चले इसी में ही उसकी भलाई है, वरना उसके पास राष्ट्रहित के नाम पर मीडिया पर पाबन्दी लगाने के ढेरों बहाने है।
मीडिया का काम है देश दुनिया के साथ-साथ हमारे आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को निष्पक्षता के साथ लोगों के सामने रखना। बेहतर होगा की हम अपना काम करें और मीडिया को अपना काम करने दें।
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