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क्यों हमारी मीडिया को चाहिए यौन हिंसा के व्याख्या की ट्रेनिंग

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एक डरी हुई महिला जिसके ऊपर एक पुरुष की परछाई पड़ रही है, फटे हुए कपड़े और अपने हाथों से चेहरा झुपाए हुए कोई महिला। ये कुछ ऐसे चित्रों और तस्वीरों के उदहारण हैं जो अमूमन यौन हिंसा (सेक्सुअल वायलेंस) को रिपोर्ट करते समय मीडिया के विभिन्न माध्यमों में इस्तेमाल किए जाते हैं। इस तरह की तस्वीरें सालों से एक जेंडर (लिंग) विशेष के खिलाफ होने वाले अपराधों की पीड़ा और उसकी गंभीरता को दिखाने के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। यहां बता दें कि दुनिया भर में हर तीन में से एक महिला खिलाफ हिंसा होती है। अब सोचिए कि एक पाठक को इन तस्वीरों से क्या सन्देश जाता है? कि महिलाएं एक असहाय पीड़ित हैं? या उनकी ज़िन्दगी ऐसी किसी घटना के बाद ख़त्म हो गयी है?

पत्रकार नेहा दीक्षित कहती हैं, “मुझे लगता है कि हममें से कई लोग महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की रिपोर्टिंग में इस तरह की तस्वीरों के इस्तेमाल के साथ सहज नहीं हैं। लेकिन हमने इसे बदलने के लिए मिलकर कोई गंभीर प्रयास अब तक नहीं किया है।”

इस सोच को बदलने के लिए रविवार 16 तारीख को ब्रेकथ्रू इंडिया ने #RedrawMisogyny नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें शामिल हुए कई पत्रकारों के साथ मिलकर विभिन्न तस्वीरों, फोटोग्राफ और चित्रों के ज़रिए महिला हिंसा और यौन अपराधों से उबर रहे लोगों को मीडिया में दिखाए जाने के गलत तरीकों को बदलने पर बात की गई।

ब्रेकथ्रू के कोऑर्डिनेटर- डिजिटल इंगेजमेंट, हिमेल सरकार ने हमें इस कार्यक्रम को करवाने के कारणों के बारे में बताते हुए कहा, “जब यौन अपराधों पर बनाई जाने वाली रिपोर्ट का मकसद केवल ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचना भर हो तो ऐसे में इन रिपोर्टों में इस्तेमाल हुई ये तस्वीरें जिसके साथ अपराध हुआ है उसे ‘पीड़ित’ बनाने वाली सोच को पुख्ता करती है। और ऐसे में यौन हिंसा के गंभीर अपराध से ‘उबर’ रहे लोगों में शर्म की भावना तो आती ही है, साथ ही इन अपराधों से उबर रहे लोगों पर ही लांछन लगाने की सोच को भी बढ़ावा मिलता है।”

यौन अपराधों को लेकर बनने वाली इस सोच का असर कहीं ना कहीं अदालती फैसलों और राजनीति पर भी पड़ता है। ब्रेकथ्रू के साथ सोनीपत (हरियाणा) में काम कर रहे पंकज और प्रवीन इस वर्कशॉप में हिस्सा लेने के बाद ही इन तस्वीरों के रिपोर्टिंग की संवेदनशीलता पर असर को समझ पाए। आज कुछ ऐसी भी मीडिया संस्थाएं हैं जो महिला हिंसा और यौन अपराधों पर रिपोर्ट करने के कुछ अलग तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। जैसे- ये कहना कि “महिला के साथ बलात्कार हुआ” इसमें अपराधी का कोई ज़िक्र नहीं है, ऐसे में सारा ध्यान अपराधी की जगह जिसके साथ अपराध हुआ है उस पर चला जाता है।

तस्वीरें भी इससे अलग नहीं हैं, जिन्हें बदला जाना चाहिए इसी उम्मीद के साथ नेहा कहती हैं, “तस्वीरों का मकसद अपराधी और अपराध पर ध्यान खींचने का होना चाहिए ना कि जिसने अपराध का सामना किया है उसकी तरफ। अगर तस्वीरें ऐसा कर पाने में कामयाब होंगी तो ये लोगों के दिमाग में बनी रहेंगी और इससे ज़रूर चीजें बदलेंगी।”

इसी बदलाव की उम्मीद में ब्रेकथ्रू की क्रिएटिव टीम नयी तस्वीरों और फोटोग्राफ्स को 2 हफ़्तों में  तैयार करना चाहती है। हिमेल बताते हैं कि इन्हें मीडिया से जुड़ी तमाम संस्थाओं को दिया जाएगा ताकि उन पुरानी तस्वीरों के इस्तेमाल को रोका जा सके जो यौन अपराधों का सामना करने वाले को एक पीड़ित के रूप में दिखाने की सोच को बढ़ावा देती हैं।

रिपोर्टिंग के तरीकों में संवेदनशीलता को बढ़ाने की दिशा में इसे एक छोटा लेकिन ज़रूरी कदम मानने वाली दिल्ली की डिज़ाइनर नेहा वासवानी कहती हैं कि, “आप पढ़ना शुरू करते हैं, आप फेमिनिस्ट लोगों से मिलते हैं और आप इस मसले की गंभीरता को समझना शुरू करते हैं। जब मुझे ये बात समझ आई तो लगा कि इसमें तुरंत कुछ बदलाव किए जाने ज़रूरी हैं। लेकिन मुझे पता नहीं था कैसे? यह बेहद निराशाजनक था, मैं चाहती थी कि अपने हुनर का इस्तेमाल कर कुछ कर पाऊं।”

कुछ महीने पहले ही नेहा वासवानी ने ब्रेकथ्रू की टीम से बात करना शुरू किया और इस बातचीत के कुछ समय बाद पिछले साल #RedrawMisogyny की सोच पुख्ता हुई। इसमें लोगों को साथ कैसे लाया जाए ये सबसे बड़ी चुनौती थी, यहीं पर इन्स्टाग्राम काम में आया।

इन्स्टाग्राम की सामुदाइक साझेदारी और कार्यक्रम संभालने वाली तारा बेदी कहती हैं कि, “ब्रेकथ्रू के कार्यक्रम में शामिल हुए कई लोग और कलाकार इन्स्टाग्राम के ज़रिये आए।” हालांकि इस कार्यक्रम में नयी तस्वीरें तैयार करने के लिए दो हफ़्तों की सीमा तय की गयी है, लेकिन कलाकार चाहें तो इन्स्टाग्राम पर इस पूरे साल #RedrawMisogyny पर अपनी तस्वीरें भेज सकते हैं।

तारा कहती हैं, हो सकता है कि केवल एक तस्वीर से समाज की सोच तुरंत न बदले, लेकिन उम्मीद है कि समय के साथ सामने आने वाली कई तस्वीरों का एक सकारात्मक असर होगा और सोच बदलेगी।”

अंग्रेज़ी में यह लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद- सिद्धार्थ भट्ट

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