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पाकिस्तान के कट्टरपंथ पर चीखती फिल्म ‘खामोश पानी’

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पानी जब बिना किसी हलचल के शांत, खामोश ठहरा हो, तब इसकी गहराई का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल होता है। कुछ ऐसी ही है फिल्म खामोश पानी पाकिस्तान की सरज़मीन पर फिल्मायी गई ये पंजाबी फिल्म एक सच्ची कहानी है। यह फिल्म आयशा नाम के किरदार के आस-पास घूमती हैं, जो तकरीबन 40 साल की एक विधवा औरत हैं। उसके जीवन में रिश्ते के नाम पर उसका एक बेटा सलीम ही है और आर्थिक रूप से वह अपने मरहूम पति की पेंशन पर निर्भर हैं।

आयशा कुरान पढ़ती है और अपने आस-पड़ोस के बच्चों को भी कुरान पढ़ना सिखाती है। आयशा कहती है कि मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों को ही जन्नत नसीब हो सकती है। सलीम अभी पढ़ रहा है और उसे गांव की ही एक लड़की ज़ुबैदा के साथ इश्क में  है। सलीम जवानी की उस दहलीज़ पर है जहां किसी व्यक्तिगत सोच को बेहद आसानी से किसी भी सांचे में ढाला जा सकता है। फिल्म की इन सभी घटनाओं के बीच एक बात समझना मुश्किल है कि आयशा ज़्यादातर अपने घर में ही रहती है और वह कभी भी पानी के लिये गांव के कुएं पर खुद नहीं जाती बल्कि पड़ोस की बच्चियों से अक्सर पानी मंगवाती है।

फिल्म में 1979 के दौरान के बदल रहे पाकिस्तान को दिखाया गया है। पाकिस्तान पर सेनाअध्यक्ष ज़िया-उल-हक का कब्ज़ा है और हक के इशारों पर ही ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गई है। ज़िया-उल-हक के निर्देशों पर पाकिस्तान को एक कट्टर इस्लामिक देश बनाने की मुहिम चल रही है। इस सिलसिले में दो इस्लामिक प्रचारक आयशा के गांव पहुंचते हैं, जिन्हें गांव के चौधरी का समर्थन प्राप्त है ओर इनका मक़सद नौजवानों में इस्लाम के प्रचार के साथ उन्हें अफ़गानिस्तान में सोवियत संघ के साथ लड़ने के लिये प्रेरित करना भी है। थोड़े समय के भीतर ही ये दोनों गांव के जवानों के बीच अपनी पैठ बना लेते हैं, वहीं गांव के कुछ बुज़ुर्ग इनसे सहमति नहीं रखते।

कुछ समय बाद, सलीम और गांव के बाकी नौजवान रावलपिंडी में एक राजनीतिक सभा में शिरकत करते हैं, जहां नौजवानों से जेहाद में शामिल होने की बात कही जाती है और पाकिस्तान को एक इस्लामिक देश बनाने की मांग भी रखी जाती है। इस सभा का सलीम पर इतना गहरा असर होता है कि वह गांव के बाकी लड़कों के साथ मिलकर, लड़कियों के स्कूल की दीवार को ऊंची करने का फैसला करता है। वहीं नमाज के वक्त दुकानों को जबरन बंद करवाना भी शुरू कर दिया जाता है।

सलीम, जुबैदा से दूरियां बढ़ा लेता है और अपनी माँ आयशा के साथ भी तंगदिल रहने लगता है, यहीं फिल्म एक करवट लेती हैं। गांव के पास के गुरुद्वारे में भारत से आये सिख श्रद्धालुयों की भीड़ लगी हुयी है, इन्ही में एक शख़्स है, जिसका परिवार बंटवारे से पहले इसी गांव में रहता था। बंटवारे के दौरान हुई हिंसा में अपनी बेटियों को बचाने में असमर्थ उस शख़्स ने उन्हें कुएं में कूदकर आत्म हत्या करने के लिये कहा था। लेकिन उनमें से एक बच कर वहां से भाग निकली, जिसका बाद में बलात्कार होता है और फिर अपराधी से ही उसका निकाह पढ़वा दिया जाता है। उस लड़की को मुस्लिम नाम दिया जाता है ‘आयशा’।

इसी बीच इस सिख श्रद्धालु को पता चलता है कि आयशा उसकी बहन वीरो है, वह उससे मिलने भी आता है। इन दोनों की बातचीत सलीम सुन लेता है, उसे इस बात का एहसास होता है कि उसकी माँ एक सिख हैं। सलीम ये बात बाकी के नौजवानों को बताता है और तय तय किया जाता है कि आयशा को सार्वजनिक रूप से इस्लाम के प्रति अपनी श्रद्धा साबित करनी होगी। आयशा के बारे में जानने के बाद गांव के लोग आयशा से मुंह मोड़ लेते हैं और अब उसे खुद कुएं से पानी भरकर लाना होता है।

आयशा को इस बात का एहसास हो जाता है कि उसके अतीत की पहचान उसका पीछा नहीं छोड़ने वाली और वह एक दिन उसी कुएं में छलांग लगाकर खुदकुशी कर लेती है जहां 30 साल पहले उसके पिता ने उसे कूद कर मरने के लिये कहा था। फिल्म का अंत, 2002 में होता हैं जहां जुबेदा, आयशा को याद कर रही है, उसने दुपट्टे से अपना सर ढका हुआ है और सलीम अपनी मुस्लिम छवि, दाढ़ी और सर पर टोपी के साथ दिखाई देता है। इस फिल्म में आयशा और जुबेदा का किरदार किरण खेर और शिल्पा शुक्ला ने निभाया है और फिल्म की निर्देशक हैं सबीहा सुमर। दोनों अभिनेत्रियां भारतीय हैं और फिल्म की निर्देशक एक पाकिस्तानी महिला हैं, शायद दोनों ही देश में मौजूद पुरुष प्रधान समाज के दर्द को इन तीनों ने बखूबी इस फिल्म के ज़रिए दिखाया है।

वीरो उर्फ़ आयशा जो किसी तरह 1947 के बंटवारे में बच गयी थी, उसे 30 साल बाद खुदकुशी के लिये मजबूर होना पड़ा, क्या इसके लिये 1979 में बदल रहा पाकिस्तान जिम्मेदार नहीं था जो अपनी नींव कट्टर इस्लामिक देश के रूप में रख रहा था? जहां एक गैर मुस्लिम उस पर औरत समाज को नामंजूर थी? इसका सबूत फिल्म भी दिखाती है जब आयशा के खुदकुशी कर लेने के बाद सलीम अपनी माँ की छोटे से संदूक को खोलता है और उसमे मौजूद गुरबाणी की किताबों को देखता है और अगले ही पल वह इस संदूक को नदी में बहा देता हैं। शायद इसके ज़रिए फिल्म दिखाना चाहती है कि 1979 के पाकिस्तान में इस्लाम के सिवा और कोई धर्म या मज़हब क़बूल नहीं था। आज यही कट्टर पाकिस्तान, एक कमज़ोर देश साबित हो रहा हैं जहां गरीबी, अशिक्षा, पुरुष प्रधान समाज, इसकी नाकामयाबी की छवि प्रस्तुत करते हैं।

जिस तरह आज भारत में राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म के नाम पर नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं, गौरक्षा के नाम पर दादरी और अलवर हमारे सामने है। दलितों के साथ बढ़ती हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं और पुरुष प्रधान समाज की कवायद आज भी औरत को उसके मूलभूत अधिकारों से अलग रखना चाहती है। कहीं हम वह पाकिस्तान बनने की इच्छा तो नहीं पाल बैठें हैं, जिसकी नींव 1979 में जिया-उल-हक ने रखी थी? अगर हां, तो शायद हम खामोश पानी की आयशा और जुबैदा को खत्म करने की कोशिश की तरफ एक कदम बढ़ा रहे हैं, जिसके भविष्य में परिणाम बहुत खतरनाक होंगे।

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