हमारे पहाड़ों में एक कहानी अक्सर सुनाई जाती है। एक समय था जब इलाके में अकाल पड़ा हुआ था, अन्न कि घोर कमी थी और लोग दाने-दाने को तरस रहे थे। ऐसे में किसी परिवार को कहीं से थोड़ा चावल मिल गया। उन्होंने भात पकाया, भात पकाकर घर की बहू बाकी सदस्यों को खाने के लिए बुलाने गयी। इसी दरमियान कहीं से एक कुत्ता घुस आया और उसका पांव चावल के बर्तन में पड़ गया। अब कुत्ता तो भाग गया पर परिवार वालों के समक्ष विकट समस्या खड़ी हो गयी कि भात खाया जाए या ना खाया जाए।
अकाल कि स्थिति में एक दाना अन्न भी अमृत समान था, पर कुत्ते का छेड़ा अन्न कैसे खा लिया जाए? जाने कौन सी नाली से आया होगा और कुछ धार्मिक शुद्धता का भी प्रश्न था। तो सोचा संकट का निवारण भी पुरोहित द्वारा ही करवा लिया जाए। पुरोहित चावल को लालच कि दृष्टि से देख रहे थे, परन्तु समस्या का शास्त्र सम्मत निवारण करना भी इन्ही का दायित्व था। तो बस इन्होने अपना शास्त्र बनाया (मतलब लगाया) और पूछा- कुत्ता कौन से रंग का था?
जवाब मिला- लाल।
पुरोहित मंद-मंद मुस्काने लगे उन्होंने आगे पूछा- अच्छा क्या उसकी पूंछ टेढ़ी थी?
जवाब मिला- हां, जैसे सब कुत्तों की होती है, इसकी भी पूंछ टेढ़ी थी?
अब पुरोहित ने अट्टहास किया और बोला- फिर कोई समस्या नहीं है, ये तो शुभ लक्षण है।
घर के लोगों ने कहा- अरे महाराज, कुत्ता भात पर पांव मारकर चला गया इसमें शुभ क्या था?
पुरोहित ने कहा- अरे शास्त्रों में विदित है- “लाल कुत्तम महा उत्तम, डूंड पूंछे पुनः-पुनः”
इस ‘शास्त्र सम्मत ज्ञान’ से सबको बड़ा हर्ष हुआ और पुरोहित जी को भी इस ज्ञान का इनाम मिला।
वैसे तो इस मनोरंजक कथा कि पृष्ठभूमि (अकाल) दुखद है, परन्तु वो हास्य ही क्या जो विपदा कि दीवारों को लांघ न पाए। परन्तु इसका एक अन्य अर्थ भी है और वो ये कि यदि जनता अज्ञानी हो अथवा ज्ञान का ठेका किसी विशेष व्यक्ति या संगठन को दे दिया जाए, तो ज्ञान का स्वरुप बदलना बहुत आसान हो जाता।
जिस समय की ये कथा है उस समय मोबाइल फ़ोन, facebook या ट्विटर वगैरह नहीं होते थे, वरना पुरोहित जी को संस्कृत में श्लोक रचने की आवश्यकता नहीं होती। बस कहीं से कुत्ते की तस्वीर लेकर उस पर मनगढ़ंत कैप्शन डालकर facebook पर सर्कुलेट कर देते। गांव के क्या, दुनिया भर के लोग मान जाते कि लाल कुत्ते का छुआ हुआ भात शुद्ध होता है। हो सकता है लाल कुत्ता रक्षा समिति भी बन जाती या लोग शुभ फल की कामना से जानबूझकर लाल कुत्ते से अपना भात छुआने लगते।
यहां समझने वाली बात ये है कि वो कुत्ता महान नहीं है बल्कि पुरोहित जी महान हैं। किसी भी चीज़ को जस्टिफाई किया जा सकता है, बस भाषा पर पकड़ होनी चाहिए (या कहें कि आज के समय में फोटोशोप की कला होनी चाहिए)। मसलन कोई आदमी बहुत कंजूस है और मुझे उसके इस तथाकथित “गुण” की प्रशंसा करनी है तो पाठ कुछ यूं पढ़ा जायेगा- “श्रीमान धन के सदुपयोग में गहरी आस्था रखते हैं, उनका मानना है कि आज की बचत से ही कल के स्वर्णिम युग का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। उन्होंने धन संचय का पाठ पढ़ते हुए अपना आर्थिक मूल्यवर्धन किया है।”
अब इसी बात को यदि आलोचना कि तरह लिखा जाए तो कुछ ऐसा लिखा जाएगा- “श्रीमान पैसे के आगे किसी को कुछ नहीं समझते, कल के स्वर्णिम सपने में अपना और अपने परिवार का वर्तमान भंग करने को प्रयत्नशील है। खुद तो कंजूस हैं ही, दूसरों को भी पैसे बचाने की शिक्षा देकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं।” बात वही है बस भाषा अलग है। “लाल कुत्तम महा उत्तम…..” संस्कृत में बोलने से पांडित्य प्रभाव पैदा हुआ, उस पांडित्य के पीछे की बात बहुत मामूली थी पर भाषा ने कमाल कर दिया।
हां उस कहानी के पुरोहित जी ने जो किया उससे किसी का नुकसान नहीं हुआ। न केवल अन्न बचा बल्कि सबकी भूख भी शांत हुई। पुरोहित ने जो किया वो शायद फ्रेंच दार्शनिक फूको कि नज़र में “knowledge is power” की अभिव्यक्ति हो, पर अंततः उससे सबका भला हुआ। पर सब इतने भाग्यवान नहीं होते हैं। जब घृणा, हिंसा, द्वेष फ़ैलाने के लिए ज्ञान का ‘उत्पादन’ होने लगे तो ऐसी मशीनों के पुर्जे ठीक करना आवश्यक हो जाता है। पर घृणा हमें नहीं ढूंढती, कहीं न कहीं हम घृणा को ढूंढते हैं, तभी तो जानते-बूझते हुए भी ऊल-जलूल facebook और WhatsApp संदेशों पर लोग आंखें मूंदकर विश्वास कर लेते हैं। एक खीज है एक अहं भाव भी है जो मुझ पर भी हावी है और हम सब पर भी।
हरिशंकर परसाई जी खूब कह गए है- “नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं। दो नशे खास हैं: हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं। इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।”
जो ईश्वर तक पहुंचा दे वो अज्ञानता चल सकती है पर जो ईश्वर के नाम पर की जाए वो अज्ञानता नहीं अभिशाप है।
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