राकेश कायस्थ की किताब प्रजातंत्र के पकौड़े अभी की राजनीति पर एक व्यंग्य है। टेलीविज़न को दिए इंटरव्यू में पीएम मोदी ने पकौड़े को लेकर एक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि आपके चैनल के बाहर जो पकौड़ा बेच रहा है, वो भी तो एक तरह का रोज़गार है। प्रधानमंत्री के इस बयान की चौ-तरफा आलोचना हुई थी। लेखक ने बड़ी चतुराई के साथ पीएम मोदी के बयान पर यह किताब लिखी है। पूरी किताब में करीब 30 कहानियां हैं।
किताब की शुरुआत होती है रामभरोसे से। रामभरोसे पूरी किताब का केंद्र बिंदू है, जो प्रधानमंत्री के विज़न को पूरे विश्व में फैलाना चाहता है। लेखक ने किताब में हर किस्से को दूरगामी सोच के साथ लिखा है। लेखक ने हाल ही में हुए हर किस्से को साल 2020 के तौर पर लिखा है। जब पीएम मोदी जी ने किसी टेलीविज़न चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा था कि आपके ऑफिस के बाहर भी जो पकौड़ा बेच रहा है, वो भी तो रोज़गार ही है। राकेश कायस्थ ने इसी बयान पर पूरी यह किताब लिखी है और किताब को पूरा किया है बयान के ईर्द-गिर्द लेखक के रचनात्मक किस्सों ने।

तो कहानी शुरू होती है दावोस के वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम से, जहां रामभरोसे पूरी दुनिया को प्रधानमंत्री का विज़न दे रहे हैं। रामभरोसे प्रधानमंत्री के लिए वो चुनावी दांव थे, जिसे प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल से भी ऊंचा दर्जा दिया। लेखक ने अपने पाठकों के लिए प्रधानमंत्री और रामभरोसे के रिश्ते को भलीभांति लिखा है। रामभरोसे ने प्रधानमंत्री के विज़न को पूरा करने के लिए वहीं त्याग और समर्पण किए हैं, जैसे आपको वर्तमान प्रधानमंत्री के दिखे होंगे। किताब के प्रधानमंत्री और देश के वर्तमान प्रधानमंत्री के बीच अगर कोई तालमेल मिलता है तो वह केवल संयोग मात्र है।
लेखक ने कई समकालीन मुद्दों में रामभरोसे के पात्र को पिरोया है, जिसमें मंदिर का मुद्दा हो, देश के लिए पत्नी को छोड़ना हो, देशद्रोही का मुद्दा, विपक्ष का मुद्दों से भटकाकर सरकार गिराने की कोशिश, पाकिस्तान से तनातनी, इमरजेंसी या फिर लोकतंत्र पर सवाल।
अगर राजनीति में अच्छा व्यंग्य पढ़ना है तो यह किताब पढ़ सकते हैं। लेखक ने समकालीन किस्सों पर जिस तरह अपने लेखन से व्यंग्य व्यक्त किया है, वो काफी सराहनीय है। किस्सों को पढ़ते हुए आप उनकी कल्पना करने लगते हैं। आप उन परिस्थितियों में खुद को महसूस करते हैं, जिनकी बातें लेखक कर रहा है। खास बात यह है कि लेखक के व्यंग्य में किसी तरह की नकारात्मक आलोचना नहीं है। हां, यह ज़रूर है कि आखिर में आते-आते थोड़ी पढ़ने की इच्छा कम हो जाती है लेकिन एक बेहतर राजनीतिक व्यंग्य के तौर पर किताब को पढ़ा जा सकता है।
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