लेख का शीर्षक शायद थोड़ा अटपटा लगे, लेकिन एक अच्छी फिल्म की यही खासियत होती है कि उसके कई आयाम होते हैं या हो सकते हैं। हिंदी मीडियम, अंग्रेज़ी के प्रति आज़ाद भारत में बढ़ते दास भाव, और शिक्षा के व्यवसायीकरण जैसे गंभीर विषय को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करती है। फिल्म हर विभाग में बेहतरीन हैं। इसके लिए फिल्म के कलाकार, लेखक, निर्देशक सहित पूरी टीम बधाई की पात्र है।
ये दिमाग घर पर रख कर जाने वाली कॉमेडी फिल्म नहीं है, बल्कि दिमाग को थोड़ा झकझोरने वाली फिल्म है। क्यूंकि ये फिल्म बड़े-बड़े मुद्दों को उठा रही है इसलिए इसकी आलोचना या समीक्षा भी सिर्फ सफल-असफल या अच्छे-बुरे से हटके होनी चाहिए। इस लेख के दो भाग हैं, एक इस फिल्म तक सीमित है, और दूसरा फिल्म के परे जाता है।
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तो पहले फिल्म की बात…
यह फिल्म मूलतः कॉमेडी है, क्यूंकि इरफ़ान और सबा का परिवार आर्थिक रूप से संपन्न है और अंग्रेज़ी स्कूल के सपने के लिए वो किसी भी हद्द तक जा सकते हैं। इसीलिए जो भी परेशानियां आती हैं उन पर दर्शकों को हंसी आती है। ये समस्याएं जीवन और मौत का सवाल नहीं बनती हैं।
पर ये फिल्म अगर श्यामप्रकाश की कहानी होती तो? भाई कौन श्यामप्रकाश? जो लोग इरफ़ान खान के बेहतरीन अभिनय और पॉपकॉर्न के मज़े लेने में भूल गए हों उन्हें मैं याद दिला दूं कि श्यामप्रकाश का चरित्र फिल्म में बहुत महत्वपूर्ण है और दीपक डोबरियाल ने उसे बखूबी निभाया है। बड़े शहरों की भरतनगर जैसी बस्तियों का श्यामप्रकाश, एक मिल मजदूर, ड्राईवर, नौकर, सोसाइटी का सिक्योरिटी गार्ड कुछ भी हो सकता है।
इन्हीं लोगों के कारण शहर के अमीर बच्चे आज भी थोड़ी बहुत हिंदी जानते हैं। मां-बाप बच्चों को समझाते हैं कि ये बेचारे गरीब लोग हैं, इन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती तो इनसे काम करवाने के लिए मजबूरी में हिंदी बोलनी पड़ जाती है। खैर मेरा सवाल था की क्या ये फिल्म श्यामप्रकाश की कहानी हो सकती थी? मल्टीप्लेक्स दौर की हमारी वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री को गरीबी से एलर्जी हैं। हालांकि हिंदी फिल्मों में मदर इंडिया और दो बीघा ज़मीन जैसी फिल्मों की एक परंपरा रही है। पर आज के कॉर्पोरेट मॉडल में इस तरह के विषय सिरे से खारिज कर दिए जाते हैं। पर क्या सारा दोष निर्माताओं का ही है?
मान लीजिये की अगर कोई निर्माता पैसा लगा भी देता तो क्या लोग सिनेमा हॉल में उसी तरह ठहाके लगा रहे होते जिस तरह अभी लगा रहे हैं। शायद नहीं, क्यूंकि श्यामप्रकाश की कहानी मनोरंजक न होकर, उसके संघर्ष और उसके साथ होने वाले अन्याय की कहानी होती। जिसके लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं। हमने न सिर्फ उनके स्कूल का कोटा छीना है, बल्कि पानी, हवा, बिज़ली सब पर डकैती डाली है, हम तथाकथित ईमानदार करदाताओं ने। हमने ज़रुरत से ज़्यादा वस्तुओं का संग्रह और भोग किया है जिससे बुनियादी चीज़ों के भी दाम इतने बढ़ गए हैं कि श्यामप्रकाश जैसे लोग अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर है। तो श्यामप्रकाश फिल्म का हीरो तो नहीं हो सकता। लेकिन कमबख्त श्यामप्रकाश को फिल्म से निकाला भी नहीं जा सकता।
ये भी शिक्षा का अधिकार या कंपनियों के कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR, जिससे कर में छूट मिलती है) की तरह का कोटा हैं। जो मजबूरन फ़िल्मकारों को कहानी में डालना पड़ता है। 500 रुपये का टिकेट खरीद के और उससे अधिक कीमत के पॉपकॉर्न या पेप्सी पीते हुए दर्शक जब हंसते -हंसते थक जाए तो फिल्म के अंत में उन्हें थोड़ा रुला भी देना चाहिए। बस भाई बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड टूट जाते हैं। ये गरीबी और आत्मग्लानी का तड़का, फिल्म की सफलता सुनिश्चित करता है। हिंदी फिल्म वालों को तो इस तड़के में महारत हासिल है।
लेकिन ये तड़का इतना ज़्यादा है कि दूसरे हिस्से में फिल्म मिक्स वेज जैसी कोई डिश बन जाती है। फिल्मकार ना जाने कितने विषयों और मुद्दों को एक फिल्म में समा लेना चाहता है। येन केन प्रकारेण फिल्म को एक नियति पर ले जाने का प्रयास है।
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लेकिन एक हद तक ये भटकाव भी सही ही है, असल में अंग्रेज़ी के भाषाई नस्लवाद की समस्या बहुत ही गंभीर है। आतंकवाद, जातिवाद या नस्लवाद की तरह इसका भी कोई सरल हल नहीं सुझाया जा सकता। तो कुल मिलाकर ये एक बेहतरीन प्रयास था सार्थक विषय को मनोरंजक ढंग से उठाने का, जिसमे फिल्मकार सफल रहा। इसीलिए फिल्म से उम्मीदें और बढ़ जाती हैं।
हास्य व्यंग गंभीर विषयों को उठाने में हमेशा से सफल रहा है। खासतौर से व्यावसायिक सिनेमा में जहां गंभीरता से निर्माता से लेकर दर्शक तक सभी बचना चाहते हैं। हिंदी-अंग्रेज़ी, अमीर-गरीब और देशी-विदेशी के चुटकुले हमेशा से ही कॉमेडी शोज की सफलता का आधार रहे हैं। सिनेमा हॉल में भी तमाम दर्शक हिंदी-अंग्रेज़ी की इस टॉम एंड जेरी-नुमा हास्य से लोटपोट हो गए। मगर एक फीचर फिल्म, कॉमेडी शो से बहुत आगे जा सकती है, जाना भी चाहिए। मगर ऐसा नहीं हुआ। खासतौर से जब आपके पास इतने बेहतरीन कलाकार और लेखक-निर्देशक हों।
भाषा का मुद्दा एक गंभीर राजनीतिक मुद्दा है लेकिन इससे बचने का प्रयास लेखक-निर्देशक ने किया है। जो फिल्म में बहुत साफ़ तौर से दिखता है। फिल्म के संवाद लेखक ने एक इंटरव्यू में कहा भी कि हम अंग्रेज़ी के प्रति असम्मान नहीं दिखाना चाहते थे। संभव है ऐसा उनसे फिल्म के निर्माता-निर्देशक ने कहा हो। लेकिन हिंदी बनाम अंग्रेज़ी जैसे गंभीर मुद्दे में अगर आप अंग्रेज़ी के मान सम्मान का ध्यान रखेंगे तो बात नहीं बनेगी। ये कुछ ऐसा ही हुआ की दलितों के विषय पर फिल्म बनाई जाए मगर ऊंची जाती वालों को दोष न दिया जाए।
फिल्म के में अंत में इरफ़ान का लम्बा मोनोलॉग है जिसकी एक लाइन हैं इंडिया इज़ इंग्लिश एंड इंग्लिश इज़ इंडिया। ये भी गंभीर बात है, लेकिन क्या बस इतना कह देना पर्याप्त है। अंग्रेज़ी एक नस्लवाद की तरह है। अंग्रेज़ी न जानने वालों को अछूत समझा जाता है। खुद सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश या नौकरियों के चयन के वक़्त भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव करती है। लेकिन फिल्म में ये सब सख्त लहज़े में नहीं कहा गया। शायद लेखक-निर्देशक, निर्माता के मन में डर था कि कहीं उनका मल्टीप्लेक्स वाला दर्शक इसे दिल पे ना ले ले और कुछ कमाई कम हो जाए। यही डर इस फिल्म को एक औसत मनोरंजक फिल्म से आगे नहीं जाने देता।
मेरा अभिप्राय सिर्फ इतना हैं की ये फिल्म बहुत बेहतरीन हो सकती थी। फिर भी बाहुबली और आईपीएल के दौर में आकर भी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के जो झंडे गाड़े हैं वो फिर से इस बात को सिद्ध करता है कि अगर अच्छी फिल्में बने तो दर्शक उसे सराहते भी हैं। रही बात श्यामप्रकाश की तो वर्तमान हिंदी फिल्म जगत और दर्शक शायद अभी उसकी कहानी देखने के लिए तैयार नहीं हैं। खैर अब आते हैं फिल्म से परे इस भाषाई नस्लवाद के गंभीर मुद्दे पर (जिन लोगों को लेख का पहला भाग ही अनावश्यक रूप से बाल की खाल निकालने वाला लगा हो वो आगे अपना समय व्यर्थ ना करें।)
मैं मुंबई में नया-नया आया था और एक फिल्म में काम कर रह था, उसमें मुंबई के कुछ प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी स्कूलों से चुने बच्चे अभिनय कर रहे थे। एक दिन वे अपने परीक्षा परिणाम पर चर्चा कर रहे थे। मैंने सुना की मराठी में फेल होना उनके लिए गर्व की बात थी और जिस बच्चे के मराठी में अच्छे नंबर आये थे उसका मज़ाक उड़ाया जा रहा था। ज़्यादातर बच्चे पहला मौका मिलते ही मराठी छोड़ देते हैं और कोई विदेशी भाषा चुन लेते हैं। मेरे लिए ये बात समझना मुश्किल था कि स्थानीय भाषा के प्रति इतना तिरस्कार का भाव कैसे हो सकता है?
“जैसे प्राचीन भारत में ऊंची जाति के संपन्न लोगों ने संस्कृत के माध्यम से लोगों से भेदभाव किया, दलितों को शिक्षा से दूर रखा। ठीक वैसे ही आज़ाद भारत अंग्रेज़ी पढ़े लिखे लोगों ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अंग्रेज़ी को योग्यता का पैमाना बना दिया।”
फेसबुक पर भी हम अक्सर किसी कोचिंग सेंटर, दुकान या सरकारी सूचना में लिखी गलत अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाते हुए सन्देश देखते हैं। मैंने खुद कई बार लोगों को अंग्रेज़ी शब्दों के गलत उच्चारण को सही कराने के बहाने लोगों का मज़ाक बनाते देखा है। लेकिन कितने प्रतिशत भारतीय अपनी मात्रभाषा को सही बोल या लिख सकते हैं। आज अंग्रेज़ी ने मानसिक गुलामी से आगे बढ़कर भाषाई नस्लवाद का रूप ले लिया है। एक ऐसा नस्लवाद जो भारत की किसी भी परंपरा का पालन करने वाले पर हंसता है। भारतीय भाषाओँ में बातचीत करने वालों को पिछड़ा समझा जाता है, उनका मज़ाक उड़ाया जाता है।
भारत को आज़ाद हुए 70 वर्ष हो गए मगर फिर भी अंग्रेज़ी के प्रति ये दास भाव लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत ने जिस तरह कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा देकर उसके विवाद की बीज बोया उसी तरह उसी तरह अंग्रेज़ी को विशेष भाषा का दर्ज़ा देकर एक स्थायी समस्या को जन्म दिया। शायद उस समय लोगों को लगा होगा की भारत में इतनी भाषाएं हैं तो आज़ादी के कुछ दिनों तक अंग्रेज़ी एक सूत्रधार का काम करे। मगर अंग्रेज़ी सूत्रधार न रहकर सिरमौर बना दी गयी हैं। अंग्रेज़ी आज़ाद भारत की संस्कृत बन गयी।
जिस तरह प्राचीन भारत में संपन्न और ऊंची जाति के लोगों ने संस्कृत के माध्यम से लोगों के साथ भेदभाव किया, दलितों को शिक्षा से दूर रखा। ठीक उसी तरह आज़ाद भारत में जो लोग अंग्रेज़ी पढ़े लिखे थे उन्होंने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अंग्रेज़ी को योग्यता का पैमाना बना दिया। ये एक सुनुयोजित षड़यंत्र था। भारत के गरीब और पिछड़े वर्ग को पिछड़ा बनाये रखने के लिए।
अरे जो बच्चा गणित भूगोल और विज्ञान सीख सकता है पायथागोरस थ्योरम समझ सकता है वो अंग्रेज़ी क्यूं नहीं सीख सकता? आखिर इस खास तबके के बाप-दादाओं ने भी तो मेमसाब और लाटसाब की जी-हजूरी करते-करते अंग्रेज़ी सीख ली थी। कुछ तो इतना सीख गए हैं कि आजकल अंग्रेजों को अंग्रेज़ी सिखाते हैं। मतलब भाषा तो कोई भी सीख सकता है।
इस बात में कोई शक नहीं की अंग्रेज़ी भारत के विभिन्न राज्यों में और वैश्विक पटल पर भी संवाद का माध्यम है। आज अगर हमारे देश के युवा पूरे विश्व में नौकरियां कर रहे हैं तो इसके लिए अंग्रेज़ी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन अंग्रेज़ी सिर्फ एक भाषा है और किसी भी भाषा को योग्यता का एकमात्र पैमाना बना देना गलत है।
सिविल सेवाओं से लेकर एक बैंक का क्लर्क बनने तक के लिए अंग्रेज़ी की परीक्षा होती है। कई परीक्षाओं में तो अंग्रेज़ी के अंक के आधार पर मेरिट लिस्ट बनती हैं और बाकी परीक्षाओं में भी पहले अंग्रेज़ी का पेपर चेक होता है और केवल अंग्रेज़ी में पास होने वालों के बाकि पेपर चेक किये जाते हैं। यही है षड़यंत्र का केंद्र बिंदु। ये एक वर्ग विशेष के हितों की रक्षा करने का तरीका है। चलो मान लिया की कामकाज की भाषा अंग्रेज़ी हैं तो उसका एक न्यूनतम ज्ञान होना आवश्यक है। लेकिन सबको पता है कि आज भी अंग्रेज़ी की पहुंच समाज के एक खास तबके तक ही है।
सरकारी स्कूलों में तो बुनियादी सुविधाओं की ही मारामारी है तो अंग्रेज़ी सिखाना तो बहुत दूर की बात है। तो जो सरकार खुद अंग्रेज़ी की शिक्षा नहीं दे सकती उसे क्या हक़ हैं अपने स्कूलों में पढ़ने वालों को अंग्रेज़ी के आधार पर नौकरियों से वंचित रखने का? होना तो ये चाहिए कि उम्मीदवार का चयन उसकी तार्किक/बौद्धिक योग्यता और विषय ज्ञान के आधार पर हो।
अगर कुछ उम्मीदवार ऐसे हों, जो बाकी विषयों में तो अव्वल हो लेकिन अंग्रेज़ी में कमज़ोर तो उन्हें चयन के बाद प्रशिक्षण दिया जाए। क्या सेना में चयन के लिए आवेदक को पहले से बन्दूक चलाना आना चाहिए? रेलवे ड्राईवर के पद पर चयनित होने वाले को क्या ट्रेन चलाना आता है? क्या बैंक में नौकरी के लिए आवेदन करने के पहले आपको बैंकिंग नियमों का कोई ज्ञान होता है? बिलकुल नहीं। ज़्यादातर विभाग सिर्फ शारीरिक और बौद्धिक कसौटी के आधार पर चयन करते है और फिर सब कुछ सिखाया जाता है। गली-गली में 6 महीनों में अंग्रेज़ी सिखाने के कोर्स चल रहे हैं तो क्या सरकार योग्य उम्मीदवारों को अंग्रेज़ी, चयन के बाद नहीं सिखा सकती?
जिस तरह वर्तमान सरकार ने तीसरी और चौथी श्रेणी के पदों की भर्ती में इंटरव्यू को खत्म कर दिया, उसी तरह अंग्रेज़ी के भाषाई नस्लवाद से निपटने के लिए तमाम प्रशानिक पदों की चयन प्रक्रिया से अंग्रेज़ी को धीरे-धीरे हटाकर क्षेत्रीय भाषाओं के ज्ञान को मेरिट के अंकों में जोड़ना चाहिए। इस तरह उच्च पदों पर शहरी, एक वर्ग विशेष और जाति विशेष के व्यक्तियों का दबदबा खत्म होगा। भारतीय भाषाओँ से जुड़े लोग भी उच्च पदों तक पहुंच पाएंगे या फिर उच्च पदों की चाह रखने वाले लोग मजबूरी में एक कोई भारतीय भाषा भी सीखेंगे। इससे प्रशासन में आने के बाद स्थानीय लोगों के साथ उनका संवाद बेहतर होगा। अधिकारी और आम जनता के बीच का जो वर्ग अंतर हैं वह भी कम होगा।
ये एक निर्णय आज़ाद भारत में राष्ट्रीय एकीकरण और आत्मसम्मान की दिशा में एक बहुत महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। जब भी इस तरह का कोई प्रयास किया गया, अंग्रेज़ी के दलालों ने बढ़ी चतुराई से भाषा के प्रश्न को हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाओँ के विवाद का रूप दे दिया है। अब समय आ गया है इस छद्म विवाद को समाप्त किया जाए और आज़ाद भारत में भारतीय भाषाओँ को उनका उचित सम्मान मिले।
अंग्रेज़ी को एक वैश्विक भाषा के रूप में सीखने समझने में कोई बुराई नहीं, लेकिन अंग्रेज़ी योग्यता की एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती। योग्य एवं कुशल बच्चों को देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों में, युवाओं को नौकरियों में केवल और केवल उनकी बौद्धिक क्षमताओं के आधार पर प्रवेश मिले। चयन के बाद सरकार अंग्रेज़ी का व्यावहारिक प्रशिक्षण दे। सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा की राष्ट्रगान की तरह भारतीय भाषाओँ को भी उनका उचित सम्मान मिले। हर भारतीय अपनी मात्रभाषा पर गर्व कर सके। शिक्षा के व्यवसायीकरण का मुद्दा, बाजारू मुद्दा है, उस पर एक पूरा लेख अलग से बनता हैं, लेकिन फिर कभी।
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