पिछले कुछ दिनों में बॉलीवुड एक्ट्रेस तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर के बीच उठे 10 साल पुराने विवाद ने सुर्खियों में खूब जगह बनाई है। इन सुर्खियों के बीच मैंने कुछ दिनों पहले निर्देशक नंदिता दास की फिल्म ‘मंटो’ देखी। एक सीन में प्रोड्यूसर बने ऋषि कपूर के सामने तीन महिलाएं खड़ी थीं, तभी उस कमरे में दनदनाते हुए मंटो के किरदार वाले नवाजु़द्दीन सिद्दीकी घुसते हैं और प्रोड्यूसर साहब से अपना पैसा मांगते हैं।
ऋषि कपूर, मंटो से बात कर रहे हैं और अपने सामने खड़ी महिलाओं से कपड़े उतारने को कह रहे हैं। यह तीनों ही सकुचा रही हैं, घबरा रही हैं और धीरे-धीरे अपने कपड़े भी उतार रही हैं। दो लड़कियां अपना ब्लाउज़ उतार चुकी होती हैं और तीसरी जो यह करने में झिझक रही होती हैं, ऋषि कपूर उसके पास जाते हैं, उसे थोड़ा कड़क मुद्रा में इशारा करते हैं और आखिर में वह भी अपना ब्लाउज़ उतार देती है।
ऋषि कपूर का डायलॉग आता है, “इस सांवली वाली में नमक बहुत है लेकिन इस गोरी वाली को ले लो, ये चलेगी”। यह सुनते ही तीनों लड़कियां अपने उतरे हुए कपड़े उठाती हैं और सीन बदल जाता है।
आपको बता दूं कि यह सीन उस दौर के सिनेमा का है, जब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था। जब फिल्म की हीरोइनों के कंधे से पल्लू नहीं सरकता था। जब फिल्में महिला चरित्रों के माध्यम से आदर्श पत्नी, आदर्श मां, आदर्श बेटी जैसे प्रतिमान गढ़ रही थीं।
अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह महज़ फिल्म का एक सीन है और इसके आधार पर राय नहीं बनाई जा सकती, तो आपके सामने साफ कर दूं कि कई आत्मकथाएं, फिल्मों से जुड़े लोग अपनी कहानियों और किस्सों में यह ज़ाहिर कर चुके हैं कि सिनेमा में जुड़ने वाली महिलाओं की चयन प्रकिया में ‘फेवर’ या ‘कास्टिंग काउच’ जैसी प्रथाएं हमेशा से जुड़ी रही हैं।
वापस रुख करते हैं तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर के मुद्दे की ओर
यहां आपको सीधे वर्तमान में उठे विवाद से जोड़ती हूं। पिछले चंद दिनों से उठे इस विवाद पर कई सवाल सुनने में आए हैं, जैसे “10 साल से क्या ये सोई पड़ी थी” या “नाना पाटेकर तो इतने अच्छे आदमी हैं, वो ऐसा नहीं कर सकते” या “अब इसे पब्लिसिटी चाहिए बस और कुछ नहीं, इसलिए इसने ये ड्रामा किया है”। इन सबके बीच इस कमेंट को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, “आशिक बनाया आपने में इतने बोल्ड सीन किए हैं, तो ऐसा क्या करना चाहते थे नाना कि इसने इतना नाटक किया”।
ऐसे कई सवाल मैंने अपने आस-पास या तनुश्री दत्ता पर लिखी गई स्टोरी पर आ रहे कमेंट्स के रूप में देखी और पढ़ी है। यहां ये ज़रूर साफ कर दूं कि तनुश्री दत्ता ने 10 साल बाद अचानक नींद से उठकर यह विवाद नहीं उठाया है। वह अपने साथ हुए इस व्यवहार पर 2008 में भी हंगामा बरपा चुकी हैं। यहां तक कि तनुश्री ने उस समय इन सबके खिलाफ पुलिस में भी शिकायत दर्ज कराई थी, तो ये सवाल तो कम-से-कम खारिज हो जाता है कि क्या वह 10 साल सो रही थीं। हालांकि उस समय यह मुद्दा कितना प्रकाशित हुआ या न्यूज़ में दिखाया गया या क्यों नहीं दिखाया गया, ये सवाल मीडिया में ज़रूर उठने चाहिए।
सिनेमाई दुनिया मेंं आज भी कुछ खास खानदानों का है वर्चस्व
सिनेमा की दुनिया कितनी स्याह और कितनी चमकीली है, ये बात हम सब जानते हैं। खासकर पिछले कुछ सालों तक भारतीय सिनेमा महज़ कपूरों, खानों, चोपड़ा और जौहरों की विरासत ही रहा है। चाहे सिनेमा बनाने की बात हो या फिर सिनेमा में नज़र आने की बात। इसके पीछे के सच कभी सामने नहीं आएं, क्योंकि बाहर से आने वाले सालों तक यहां बस अपनी जगह बनाने में ही लगे रहे हैं और ये खौफ अकसर सिर पर रहता है कि ये इंडस्ट्री पहचान से चलती है। अगर आप किसी कैंप का हिस्सा नहीं हैं, तो काम के लाले पड़ सकते हैं।
हालांकि गाहे-बेगाहे ऐसे कुछ बागी निकलते ज़रूर रहे हैं, जिन्होंने सिनेमा की चमकली दुनिया के पीछे के इस बंद कमरों की सच्चाई को सामने लाने का काम किया है। अब ये बात अलग है कि ऐसे सच बयां करने के बाद अक्सर ऐसे लोग फिर कभी इस सिनेमाई दुनिया में नज़र भी नहीं आते।
‘सर्वाइवर शेमिंग’ का यहां भी है प्रभुत्व
फिल्मों की जब भी बात होती है तो मैंने अपने आस-पास अकसर लोगों को बड़ा बेतकल्लुफ होकर यह कहते हुए सुना है, “अरे, हीरोइनों को तो ‘कॉम्प्रोमाइज़’ करना ही पड़ता है” या “एक्ट्रेस बनने के लिए थोड़ा बहुत तो ‘करना’ ही पड़ता है”।
हम बहुत आसानी से इस सच को पचा लेते हैं लेकिन वहीं जब यही ‘कॉम्प्रोमाइज’ करने वाली या ‘करने’ के लिए मना करने वाली हीरोइन सामने आकर यह कह देती है कि हां, मुझसे इस फिल्म के लिए फलां एक्टर को इस तरह खुश करने के लिए कहा गया, तो आखिर हमारे लिए इस बात पर विश्वास करना इतना मुश्किल क्यों हो जाता है?
जिन फिल्मी महिलाओं पर हम बड़ी आसानी से ‘बिकाऊ’ होने का टैग लगा देते हैं, वहीं महिला जब ये सच नंगा कर देती हैं कि आखिर उसे ‘खरीदने’ की कीमत किसने दी तो हम उस ‘खरीददार मर्द’ पर शक क्यों नहीं कर पाते?
ये तर्क महज़ सिनेमाई इंडस्ट्री से जुड़ा नहीं है, दरअसल ये ‘सर्वाइवर शेमिंग’ की ऐसी पोषित सोच है, जो हमें अक्सर किसी भी शोषण की घटना के बाद यही तर्क देने की क्षमता देती है, “कपड़े ही ऐसे पहने होंगे”, “इतनी रात में वहां कर क्या रही थी” या “इतने बोल्ड सीन कर लिए, अब इन्हें फलां एक्टर का टच, बैड टच लगने लगा”।
तनुश्री को कई हीरोइनोंं का सपोर्ट मिलना सुकून पहुंचाता है
इन सबके बीच सबसे अच्छी बात यह है कि हिंदी सिनेमाई किले में जबसे हुनरमंद ‘बाहरी’ लोगों ने सेंध लगाई है, इस किले के भीतर की नंगी तस्वीरें सामने आने लगी हैं। 10 साल पहले जहां ‘हरासमेंट’ की बात कहने वाली तनुश्री की कार पर गुडों ने चढ़कर उधम मचाया था, उनकी गाड़ी के शीशे तोड़े थे, वहीं आज 10 साल बाद इस पुराने किस्से पर भी बॉलीवुड की बड़ी-बड़ी हीरोइनें तनुश्री के साथ दिख रही हैं।
स्वरा भास्कर, सोनम कपूर जैसी एक्ट्रेस तनुश्री का साथ दे रही हैं, तो नाना के साथ काम कर चुकीं रवीना टंडन भी इस लड़की को बहादुर कह रही हैं। तनुश्री सही हैं, या नाना पाटेकर, इसे तय करने की एक पूरी कानूनी प्रक्रिया है, जो इसपर अपना फैसला देगी और उसे देना भी चाहिए।
मुझे इस बात पर संतोष ज़रूर है कि कम-से-कम इस ‘बिना खिड़की वाले और बंद दरवाज़ोंं’ वाले किले में रानियां आक्रांताओं से घबराकर हीरे की अंगूठियां नहीं चाट रहीं या अग्निकुंड में देह स्वाह नहीं कर रही हैं बल्कि हाथ में तलवार लेकर किले से बाहर आ रही हैं ताकि अपनी अस्मिता के लिए संग्राम करें।
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यह लेख पहले ज़ी न्यूज़ की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है। लेखिका ज़ी न्यूज़ से जुड़ी हुई हैं।
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